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यद्यपि महाराज जी के ग्रंथों (विशेष कर जैनतत्त्वादर्श ) की भाषा मिश्रित हिन्दी है, तथापि इस में साहित्यिक भाषा के सब गुण विद्यमान हैं । इस में सूक्ष्म से सूक्ष्म और गूढ़ से गूढ़ शास्त्रीय अर्थ प्रकट करने की पूर्ण महाराज जी की गद्य लिखने की शैली अति परिपक्क है । यह शिथिलता, विषमता आदि दोषों से रहित है।
क्षमता है ।
गम्भीर और
व्याख्यान की भाषा ।
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मेरा अनुमान है कि जिस भाषा में महाराज साहिब ने जैन तत्त्वादर्श - ग्रन्थ की रचना की थी, उसी में वे अपना उपदेश भी देते होंगे। जैनतवादर्श के प्रथम संस्करण की भाषा में कई ऐसी विशेषताएं हैं, जो इस अनुमान को पुष्ट करती हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि गुजरात और मारवाड़ में विचरते हुए वे यही भाषा बोलते होंगे और वहां भी इसी में उपदेश करते होंगे । यह भाषा समस्त आर्यावर्त्त में धर्मोपदेश के लिये उपयोगी है । अब भी बहुत से ऐसे उपदेशक हैं, जो अपने श्रोतागण की आसानी के लिये इसी प्रकार की मिश्रित हिन्दी में उपदेश करते हैं।
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कविता की भाषा ।
महाराज साहिब ने अपनी कविता ब्रजभाषा में की है परन्तु इस में भी कहीं २ पंजाबी, मारवाड़ी और गुजराती
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