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________________ तृतीय परिच्छेद २०५ संबर है, सो एक दो प्रमुख आश्रव के निरोध करने वाले में होता है । फिर यह संवर दो प्रकार का है, एक द्रव्यसंवर, दुसरा भावसंवर | आश्रव करके जो कर्म पुद्गल जीव ग्रहण करता है, तिनका जो देश से वा सर्व प्रकार से छेदन करना, सो द्रव्य संवर, रु जो भवहेतु क्रिया का त्याग, सो भावसंवर है । मिथ्यात्व, कपाय प्रमुख आश्रवों को जो बुद्धिमान् उपाय करके निरोध करे, आर्त्त और रौद्र ध्यान को वर्जे, धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यानको ध्यावे, क्रोध को क्षमा करके जीते, मान को मृदु भात्र करके जीते, माया को सरलता करके जीते, लोभ को सन्तोष करके जीते इन्द्रियों के विषय - इष्टा निष्ट को रागद्वेष के त्यागने से जीते। इस प्रकार जो बुद्धिमानू संवर भावना भावे तो स्वर्ग मोक्ष रूप लक्ष्मी अवश्य उस के वशीभूत हो जाती है । नवमी निर्जरा भावना लिखते हैं: - संसार की हेतुभूत जो कर्म की संतति है, तिस को अतिशय करके जो हानि करे, तिस का नाम निर्जरा है । सो निर्जरा दो प्रकार की है । एक सकाम निर्जरा, दूसरी काम निर्जरा, इन दोनों में से जो सकाम निर्जरा है, सो उपशांत चित्तवाले साधु को होती है, अरु काम निर्जरा शेष जीवों को होती है। ए दोनों निर्जरा उदाहरण से कहते हैं। कर्म का पाक स्वयमेव होता है, अरु उपाय से भी होता है; जैसे प्राम्र का फल स्वयमेव वृक्ष की डाली में लगा हुआ ही पक जाता
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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