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जैन तत्त्वादर्श
याद करना, (४) जो कुछ पढ़ा है, उस के तात्पर्य को एकाग्रचित्त होकर चितन करना, [इनका नाम अनुप्रेक्षा है ] (५) धर्म कथा करनी, ए पांच प्रकार का स्वाध्याय तप है । ५ (१) श्रार्त्तध्यान, (२) रौद्र ध्यान, (३) धर्मध्यान, (४) शुक्लध्यान, इन चारों में से आर्त्तध्यान अरु रौद्रध्यान, ए दोनों त्यागने और धर्मध्यान अरु शुक्लध्यान, ए दोनों अंगीकार करने, ए ध्यान तप । ६. सर्व उपाधियों को त्याग देना व्युत्सर्ग तप है । ऐ छ. प्रकार का अभ्यंतर तप है । ए सर्व मिल कर के बारां प्रकार का तप है ।
क्रोधादि निग्रह — क्रोध, मान, माया, अरु लोभ, इन चार कषायों का निग्रह करना ।
पांच व्रत, दश श्रमणधर्म, सतरां प्रकार का संयम, दश प्रकार का वैयावृत्त्य, नव प्रकार की ब्रह्मचर्य गुप्ति, तीन- ज्ञान दर्शन, चारित्र, बारां प्रकार का तप, अरु क्रोधादिक चार का निग्रह, प सर्व मिल कर सत्तर भेद चारित्र के हैं, इस वास्ते इन को चरणसत्तरी कहते हैं ।
अब करणसत्तरी के भेद लिखते हैं:*पिंडविसोही समिई, भावण पडिमाय इंदियनिरोहो ।
* चार प्रकार की पिण्डविशुद्धि, पाच प्रकार की समिति, बारह प्रकार की भावना, बारह प्रकार की प्रतिमा तथा पांच प्रकार का इन्द्रिय निरोध, पच्चीस प्रकार की प्रतिलेखना, तीन प्रकार की गुप्ति, प्रकार का अभिग्रह, ये सत्तर प्रकार की करण सत्तरी है ॥
चार