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________________ द्वितीय परिच्छेद १६१ है, तो पूर्वोक्त तुमारा कहना प्रयुक्त है; क्योंकि हम तो यह कहते हैं, कि पृथिवी आदिक अनादि हैं- किसी ने बनाये नहीं और तुम कहते हो कि आकाश में दस कोस के अन्तर में दूसरी पृथिवी क्यों नहीं बन जाती ? अब तुम ही विचारो कि तुमारा यह प्रश्न मूर्खताई का है, वा बुद्धिमानी का ? तथा इस प्रश्न के उत्तर में जो कोई तुम से पूछे, कि ईश्वर यदि स्वभाव से बना होवे, तो ईश्वर से अलग दूसरा ईश्वर क्यों नहीं उत्पन्न होता ? जे कर कहो कि ईश्वर तो अनादि है, वो क्योंकर नया दूसरा ईश्वर बन जावे ? तो इस तरह हम भी कह सकते हैं कि पृथिवी अनादि है, नवीन नहीं बनती । तो फिर दस कोस के अन्तरे श्राकाश मे क्योंकर बन जावे ? प्रतिवादी :- जे कर आप से आप ही वस्तु बनती होवे, ता सर्व परमाणु एकठे क्यों नहीं मिल जाते ? अथवा एक एक होकर बिखर क्यों नहीं जाते ? सिद्धान्तीः ये जड परमाणु हमारी ही यात्रा में नहीं चलते, जिससे कि हमारे कहे से एकठे होकर एक रूप हो जावें, अथवा एक एक होकर बिखर जावें । किन्तु पूर्वोक्त पांच निमित्त जहां पर मिलने के होंगे, तहां मिल जावेंगे, और जहां पर बिखरने के होंगे तहां बिखर जावेगे अर्थात् नहीं मिलेंगे । प्रतिवादीः --- सर्व परमाणुओं के एकत्र मिलने के पांच निमित्त क्यों नहीं मिलते ?
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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