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________________ . . जैनतत्त्वादर्श... हे भव्य ! तू अब स्वयं विचार कर देख कि जो वार्ता मैने पूर्व में तुझको कही थी सो सब सत्य है या नहीं? १. जब सरसवाणी के प्रश्न का उत्तर नहीं आया, तव तो शङ्कर स्वामी को सर्वज्ञ, कौन निष्पक्षो वुद्धिमान मान सकता है ? कोई भी नहीं मानेगा । २. जब राजा की राणी से विषय सेवन करा, तब तो उनके कामी होने में - कोई शंका भी नहीं रहती है । ३. जब शिष्यों ने प्राकर प्रतिवोध करा, तव उन को पता लगा, तब तो अज्ञानी अवश्य हो चुके । ४. जब चिता में से न निकल सके, तब लक्ष्मीनृसिह की स्तुति करी और नृसिह ने प्राय करके जलती अग्नि में. से उन को निकाला, इस से तो शङ्कर स्वामी अवश्य असमर्थ सिद्ध हो गये। ५. तथा जब शंकर स्वामी ने फिर पाकर सरसवाणी के प्रश्नों का उत्तर दिया, तब सरसवाणी ने कहा-हे स्वामी! तूं * सर्वज्ञ है । क्या मृतक के शरीर में प्रवेश करके उस की राणी के साथ विषय सेवन करके और राणी के पास से कछुक काम शास्त्र की बातें सीख कर प्रश्नों का उत्तर देने वाला सर्वज्ञ हो सकता है ? सर्वज्ञ तो नहीं हो सकता, परन्तु इस से गधे खुरकनी तो अवश्य हो गई । सरसवाणी को उसने-शङ्कर ने सर्वज्ञ कह दिया, अरु शङ्कर को सरसवाणी ने सर्वज्ञ कह दिया। वाह क्या ही सर्वज्ञों की जोड़ी मिली . * सर्वज्ञा सरसवाणी, सर्वज्ञस्त्वमिति स्वामिन, प्रस्तुतवत्यासीत् । .शं०, वि० प्र.६० -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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