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जैनतत्त्वादर्श
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होवे, सो द्रव्यार्थ * नय के मत से अव्यय - तीनों कालों में एक स्वरूप है । 'विभुम् ' - विभाति शोभता है परमेश्वरता करी सो विभु, अथवा विभवति-समर्थ होवे कर्मोन्मूलन करके सो विभु, अथवा इन्द्रादिक देवताओं का जो स्वामी सो विभु, सत्पुरुष इस वास्ते तुझको विभु कहते हैं । पुनः कैसे तुझको ? 'अचिन्त्यम्' - अध्यात्मज्ञानी भी तुमारा चितन करने को समर्थ नहीं, इस वास्ते सत्पुरुष तुझको अचिन्त्य कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'असंख्यम्' - तुमारे गुणों की संख्यागिणती नहीं कि कितने गुण हैं, इस हेतु से सत्पुरुष तुझको असंख्य कहते हैं । फिर कैसे तुझको ? 'आद्यम्'आदि में जो होवे - सर्व लोकव्यवहार का प्रवर्तक होने से सन्त तेरे को आद्य कहते हैं । अथवा अपने तार्थ को आदि करने से था । फिर कैसे तुझको ? 'ब्रह्माणम्' - अनंत आनंद करी सर्व से अधिक वृद्धि वाला होने से सत्पुरुष तुझको
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* वस्तु में रहे हुए अनन्त धर्मों मे से किसी एक धर्म का सापेक्ष दृष्टि से निरुपण करने वाले विचार को नय कहते है । वह द्रव्य और पर्याय भेद से दो प्रकार का है । केवल द्रव्य - मूल वस्तु का सापेक्ष दृष्टि से निरूपण करने वाला विचार द्रव्यार्थिक नय हैं । वस्तु में रहे हुए अनन्त धर्मों का सापेक्ष दृष्टि से निरूपण करने वाले विचार को पर्यायार्थिक नय कहते हैं । यह दोनो नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरुढ और एवंभूत के भेद से सात प्रकार के है । विशेष स्वरूप के लिये देखो परि० नं० १-घ ।