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________________ [१०४] १. अर्थ दो प्रकारका होता है, एक श्रुतिगम्य, दूसरा अर्थाधि- . गम्य, जो शब्दके श्रवणमांत्रसे प्राप्त हो तथा जिसमें वृत्तिके निमित्तकी अपेक्षा नहीं है उसको श्रुतिगम्य कहते हैं और जो प्रकरणसंभव अभिप्राय आदि शब्दन्यायसे कल्पना किया जाय उसको अर्थाधिगम्य कहते हैं. सो आत्मा अस्ति इस प्रथम भंगमें नरनारका- '. दिक आत्माके समस्त भेदोंका आश्रय न करके इच्छाके वशस कल्पित : सर्वसामान्य वस्तुत्वकी अपेक्षासे आत्मा अस्तिस्वरूप है १, तदभाव (उसका प्रतिपक्षभूत अभावसामान्यरूप अवस्तुत्व ) की अपेक्षासे नास्तिस्वरूप है २, युगपत् दोनोंकी अपेक्षासे अवक्तव्यस्वरूप है ३, और क्रमसे दोनोंकी अपेक्षासे दोनों स्वरूप है ४ ... .:. २ इसही प्रकार श्रुतिगम्य होनेसे विशिष्टसामान्यरूप आत्मस्वकी अपेक्षासे आत्मा अस्तिखवरूप हैं १, तदभावरूप अनात्मत्वको अपेक्षासे नास्तिखरूप है २, युगपत् दोनोंकी अपेक्षासे अबक्तव्य है ३, और क्रमसे दोनोंकी अपेक्षासे उभयस्वरूप है ४ । । : ३ इसही प्रकार श्रुतिगम्य होनेसे विशिष्टसामान्यरूप, आत्मत्वकी अपेक्षासे आत्मा . अस्तिखरूप है १, तदभावसामान्य ( अंगीकृत प्रथम भंगसे विरोधके भयसे अन्य वस्तुखरूप पृथ्वी अप तेज वायु घट गुण कर्म आदिक) की अपेक्षासे नास्तिस्वरूप है.२, युगपत् उभयकी अपेक्षासे अवक्तव्य है ३, और क्रमसे उभयको अपेक्षासे उभयस्वरूप है ४ ॥ ४ विशिष्टसामान्यरूप आत्मत्वकी अपेक्षासे उभयस्वरूप है १, . तद्विशेषरूप मनुष्यत्वरूपकी अपेक्षासे नास्तिस्वरूप है २, युगपत् उभयकी अपेक्षासे अवक्तव्य है ३, क्रमसे उभयकी अपेक्षासे उभयस्वरूप है ४, . . .
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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