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________________ [ १०२] ५ उपकारकी अपेक्षासे भी गुण परस्पर अभिन्न नहीं हैं क्योंकि हल्दादिरंगरूप द्रव्यसे जो वस्त्रादिक रंगे जाते हैं, सो उस हलदादिकमें वर्णगुणके जितने हीनाधिक अंश होते हैं उतना ही रंग. वस्त्रपर चढता है, इसही प्रकार उसही हल्दमें रसगुणके जितने होनाधिक अंश होते हैं उतनाही स्वाद उस हलदसंयुक्त दालादिक. पदार्थों में होता है । इससे सिद्ध होता है कि, एक पदार्थके अनेक. गुणों का उपकार भिन्न भिन्न है. उसही प्रकारसे जीवमेंभी सत्वः और असत्व गुण भिन्न भिन्न हैं इसलिये उनका उपकार भी भिन्न भिन्न है. इस कारण अभेदस्वरूपसे उन दोनों धर्मोंका वाचक एक. शब्द नहीं हो सक्ता । ६ गुणीके एक देशमें उपकारका संभव नहीं हैं जिससे कि,. एक देशोपकार से सहभाव होय, क्योंकि नीलादिक समस्त गुणके उपकारकपना है और वस्त्रादि समस्त द्रव्यके उपकार्यपना है, गुण. उपकारक है और गुणी उपकार्य है, गुण और गुणीका एकदेश नहीं है जिससे कि, समस्त गुणगुणीके उपकार्यउपकारकरूप सिद्धि - हो ही जाय और जिससे कि, देशसे सहभावसे किसी एकवाचक. शब्दकी कल्पना की जाय । उसी प्रकार सत्व ७ एकांत पक्षमें गुणोंके मिश्रित अनेकान्तपना नहीं है क्योंकि: जैसे शबल (चितकबरा ) रंगमें अपने अपने भिन्न भिन्न स्वरूपको लिये हुए कृष्ण और श्वेतगुण भिन्न भिन्न हैं और असत्व गुणभी अपने अपने भिन्न भिन्न भिन्न भिन्न है इसलिये एकांत पक्षमें संसर्गके दोनों धर्मोंका वाचक एक शब्द नहीं है क्योंकि न तो पदार्थमें ही उस प्रकार प्रवर्तनेकी शक्ति है और न वैसे अर्थका सम्बन्ध ही है ।. * स्वरूपको लिये हुए .. अभाव से एक कालमें : 4
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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