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________________ [७५] अब उसही अनेकान्तका संक्षेप स्वरूप जीवतत्वपर घटित करके कहते हैं। एक जीव, यद्यपि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे, एक है; तथापि पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षास वही एकजीव अनेकात्मक (अनेक स्वरूप) है। इसकी अनेकात्मकतामें पूर्वाचार्योंने अनेक हेतुओंका उपन्यास किया है। उनमें से कुछ थोडेसे यहां लिखे जाते हैं । (१) अभाव विलक्षण होनेसे जीव अनेकान्तात्मक है अर्थात् वस्तु भाव (सत् ) स्वरूप है और अवस्तु अभाव ( असत्) खरूप है । अभावखरूप अवस्तुकं कुछभी भेद नहीं हो सक्ते; क्योंकि जो कोई पदार्थही नहीं है तो भेद किसके किये जांय ? जीवपदार्थ अभावखग्रुप अवस्तुसे विलक्षण भावस्वरूप हैं और भावस्वरूपवस्तुमें नानाप्रकार भेद होसक्त हैं। यदि अभावस्वरूप अवस्तुकी तरह भावस्वरूप वस्तुमेंभी भेद नहीं होंगे तो दोनोंमें विशेषताके अभावका प्रसङ्ग आवंगा। (२) वह भावस्वरूप जीव छह भेदरूप है । अर्थात् १ उत्पत्तिस्वरूप, २ अन्ति ( मौजूदा ) स्वरूप, ३ परिणामस्वरूप, ४ वृद्धिस्वरूप, ५ अपक्षयस्वरूप और ६ विनाशस्वरूप । जिस समय जीव देवायुके.नाश और मनुष्यायुके उदयसे देवपर्यायको छोड़कर मनुष्यरूपसे उत्पन्न होता है उस समय उत्पत्तिस्वरूप है । मनुष्यायुके निरंतर उदयस मनुष्यपर्यायमें यह जीव अवस्थान करता है इसलिये अस्तिस्वरूप है । बाल्यावस्थासे युवावस्थारूप तथा युवावस्थासे वृद्धावस्थारूप होता है; इसलिये परिणामस्वरूप है। मनुष्यपनेको न छोड़ता हुआ छोटस बड़ा होता है, इसलिये वृद्धिस्वरूप है । ढलती उमरमें क्रमसे जरावस्थाको धारण करता हुआ एक देशहीनताको
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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