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________________ [६३] कल्पनाद्वारा परस्पर विवाद करते हैं, परन्तु जैनसिद्धान्तके अनुसार द्रत्यकी तरह गुणभी कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य हैं। जैसे पहले समयमें परिणामी ज्ञान घटाकार था और पिछले समयमें वही ज्ञान पटाकार हुआ परंतु ज्ञानपनेका नाश नहीं हुआ। घटाकार परिणतिमेंभी ज्ञान था और पटाकार परिणतिमेंभी ज्ञान है इसलिये ज्ञानगुण कथं- . चित् ज्ञानपनेकर नित्य है। अथवा जैसे आमके फलमें वर्णगुण पहले हरा था पीछे पीला हुआ, परन्तु वर्णपनेका नाश नहीं हुआ है इसलिये वर्णगुणकयंचित् वर्णपनेकी अपेक्षासे नित्य है । जिसप्रकार वस्तु परिगामी है उसही प्रकार गुणभी परिणामी है इसलिये जैसे वस्तुमें उत्पाद व्यय हैं उसी प्रकार गुणमेंभी उत्पादव्यय होते हैं। जैसे ज्ञान यद्यपि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षासे नित्य है, किंतु प्रथमसमयमें घटको जानते हुए घटाकार था और दूसरे समय पटको जानते हुए पटाकार होता है, इसलिये ज्ञानमें पटाकारको अपेक्षा उत्पाद हुआ और घटाकारकी अपेक्षा व्यय हुआ । अथवा जैसे आमके फलमें वर्णकी अपेक्षा यद्यपि नित्यता है परंतु हरितता और पीतताकी अपेक्षा उत्पाद और व्यय होते हैं । अब यहां शंकाकार कहता है कि, गुणतो नित्य हैं और पर्याय अनित्य हैं फिर द्रव्यकी तरह गुणोंको नित्यानित्यात्मक कसे कहा? ( समाधान ) इसका अभिप्राय ऐसा है कि, जब गुणोंसे भिन्न द्रव्य अथवा पर्याय कोई पदार्थ नहीं हैं, किंतु गुणोंके समूहको ही द्रव्य कहते हैं, तो जैसे द्रव्य नित्यानित्यात्मक है उसी प्रकार गुणभी नित्यानित्यात्मक वयंसिद्ध हैं, वे गुण यद्यपि नित्य हैं, तथापि विनायनके प्रतिसमय परिणमते हैं और वह परिणाम उन गुणोंकीही अवस्था है, उन परिणामों (पर्यायों) की गुणोंसे 'भिन्नसत्ता नहीं है । (शंका) पूर्व और उत्तर समयमें गुणः
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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