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________________ [२७] ४ जो जीवमें क्रोधादिक भावोंका ग्रहण करता है, उसको कर्मोंपाधि - सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक कहते हैं । जैसे, — जीवको क्रोधी मानी मायावी लोभी आदि कहना । ५ जो उत्पादव्ययमिश्रित सत्ताको ग्रहण करके एकसमय में त्रियपनेको ग्रहण करता है, उसको उत्पादव्ययसापेक्ष-अशुद्ध-द्रव्यार्थिक कहते हैं । जैसे, - द्रव्य एक समयमें उत्पाद व्यय और धौव्ययुक्त है । ६ जो द्रव्यको गुणगुणी आदि भेदसहित ग्रहण करता है, उसको भेदकल्पना-सापेक्ष - अशुद्धद्रव्यार्थिक कहते हैं । जैसे,— दर्शनज्ञान आदि जीवके गुण हैं । ७ समस्त गुणपर्यायोंमें जो द्रव्यको अन्वयरूप ग्रहण करता है, उसको अन्वय-द्रव्यार्थिक कहते हैं । जैसे, -द्रव्य गुणपर्याय स्वरूप है । ८ जो स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे द्रव्यको सत्स्वरूप ग्रहण करता है, उसको स्वद्रव्यादि - ग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । जैसे, - स्वचतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य है । ९ जो परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्यको असत्स्वरूप ग्रहणः - करता है, उसको परद्रव्यादि - ग्राहक द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । जैसे, -- परद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षा द्रव्य नहीं है । १० जो अशुद्धशुद्धोपचाररहित द्रव्यके परमस्वभावको ग्रहणः - करता है, उसको परमभावग्राही द्रव्यार्थिक नय कहते हैं । जैसे, जीवके अनेक स्वभाव हैं, उनमेंसे परमभावज्ञानकी मुख्यतासे जीवको ज्ञानस्वरूप कहना |
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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