SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 28
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [८] जल है" परन्तु उस जलज्ञानकी सचाईका निश्चय, उसें. उस ही समय नहीं हुआ । अन्यथा उसके दिलमें संशय न होता, परन्तु उसे संशय तो अवश्य होता है कि जो मैंने जाना है वह जल है या नहीं । फिर धीरे धीरे आगे चल कर उसे उधर ही से ( जिस दिशामें कि उसे “ वहाँ जल है " ऐसा ज्ञान हुआ था ) धीमे धीमे वहती हुई, ठंडी हवाका स्पर्श हुआ. । तथा उसीके आस पासमें कमलोंकी खुशबू मालूम हुई, तथा. मेंडकोंके टर्रानेकी आवाज सुनाई पड़ी, और फिर थोड़े देर आगे चल कर ही वह क्या देखता है, कि पनहारी, पानीसे भरे हुए घड़ोंको लिये हुए आ रही हैं । तो फिर उसे फौरन ही इस वातका निश्चय हो जाता है, कि जो मुझे पहले पानीका ज्ञान हुआ था, वह ठीक ही था, कारण कि यदि यहाँ पर. पानी नहीं होता, तो पानीके बगैर नहीं होनेवाली ठंडी हवा, कमलोंकी खुशबू , तथा मेंडकोंकी आवाज क्यों होती। ऐसे स्थलमें जल ज्ञानकी सचाईका निश्चय उसे दूसरे कारणोंसे होता है; वस इसको ही अभ्यस्तदशामें प्रामाण्यकी ज्ञप्ति स्वतः . और अनभ्यस्तदशामें परतः होती है, कहते हैं । उस प्रमाणात्मक ज्ञानके मूल दो भेद हैं, एक प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण उस ज्ञानको कहते हैं जो पदार्थके स्वरूपको स्पष्ट रीतिसे जानता है । उसके दो भेद हैं सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष १ (जिसको लोग उसमें एक देशीय निर्मलता होनेकी वजहसे प्रत्यक्ष कहते हैं। परन्तु वास्तवमें जो इंद्रियादिककी अपेक्षा रखनेसे परोक्ष हो, क्योंकि ऐसा. सिद्धान्त है कि " असहायं प्रत्यक्षं भवति परोक्षं सहायसापेक्षम् " अर्थात् जो इंद्रियादिककी सहायता न लेकर . केवल आत्मांके अव. लम्बनसे वस्तुका स्पष्ट जानना है वह प्रत्यक्ष ज्ञान है और. जो
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy