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________________ [२०२] जुगलिया (यानी वहां पुरुष स्त्रीका युगल-जोडा पैदा होता है इस लिये उनको जुगलिया कहते हैं) उत्पन्न होनेके बाद क्रमसे सात' सात दिनोंमें यथाक्रम अंगूठेका चूसना-पेटके सहारे सरकनापावोंके घटनेके सहारे रेंगना-अच्छीतरह चलना फिरना-कला गुणको. ग्रहण करना-यौवन प्राप्त करना-सम्यग्दर्शन ग्रहण करनेकी शक्ति इन सात अवस्थाओंमें ४९ दिन व्यतीत कर दिव्य भोगोंको भोगते हैं जो कि उनको पूर्वोपार्जित पुण्योदयसे दश प्रकारके ( मद्यांग, तूर्यांग, भूषणांग, पानांग, आहारांग, पुष्पांग, गृहांग, ज्योतिरंग, वस्त्रांग,. दीपांग) कल्पवृक्षोंके द्वारा प्राप्त होते हैं । वे सबहीके सब वज्र-- वृषभनाराच संहननवाले महावली धैर्यशाली पराक्रमी होते हैं । उनको अपनी आयुभर कभी भी रोग, बुढापा, थकावट, पीडा वगैरह नहीं. होती है। वे आपसमें (स्त्री पुरुषमें पुरुष स्त्रीमें ) अनुरागसहित होते हुए कभी भी आधि व व्याधिका नामभी नहीं जानते हैं । वे खभावा सुन्दर, मनोज्ञ शरीरके धारण करनेवाले, नाममात्रको मुकुट, कुंडल, हार, मेखला, कटक, अंगद, केयूर आदि अनेक सुंदर सुंदर आभूषणोंसे विभूषित होते हुए चिरकालपर्यन्त मनोऽभिलषित स्वर्गीय आनन्दका अनुभव करते रहते हैं। इस प्रकार बहुत कालतक अपने पुण्योदयसे प्राप्त हुए सुखोंको भोगकर अपने आयुके अंतमें पुरुष तो छींक लेते लेते और स्त्री. जिभाई लेते लेते शरद ऋतुके वादलोंकी भात विलीन होकर शरीरको छोडकर देवगतिको प्राप्त होते हैं । इस प्रकार कालचक्रका परिवर्तन होते होते तीसरे कालमें जब पल्यका आठवाँ हिस्सा बाकी रहा तब कालचक्रकी फिरन व जीवोंके क्षीण हीन पुण्या होनेकी बजहसे धीरेधीरे कल्पवृक्ष नष्ट होने लगे शरीरकी कांति फीकी पड़ने लगी.
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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