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________________ यहभी एक असमस्त पद कालके सद्भावको जतलानेवाले है और चूंकि उस कालद्रव्यका कोई कारण नहीं है इसलिये नित्य है । - अनादिनिधनः कालो वर्तनालक्षणो मतः । लोकमात्रः सुसूक्ष्माणुपरिच्छिन्नप्रमाणकः ॥ इस संसारमें सर्वही द्रव्य अपने अपने द्रव्यता गुणकी वजहसे हरएक समयमें अपनी हालतें बदलते रहते हैं । कोईभी द्रव्य सर्वथा क्षणिक व कूटस्थ नित्य नहीं है । क्योंकि पदार्थको निरन्वय विनाश सहित प्रतिक्षणमें नष्ट होनेवाला और कूटस्थकी तरह हमेशा रहनेवाला माननमें क्रमसे व युगपत् अर्थक्रिया न होनेकी वजहसे परिणमनका अभाव हो जाता है । जिससे कि वस्तुत्वका अभाव आदि अनेक दूषण हो जाते हैं । जो कि यहां विस्तार या पौनरुक्त्य दोकी वजहसे नहीं लिखे जा सकते हैं । सारांश यह है कि अनन्त गुणोंके (जो कि पदार्थोंमें भिन्न भिन्न कार्योंके देखने मालूम होते है) अखंड पिंडको द्रव्य कहते हैं। उन अनन्त गुणोंमें एक द्रव्यत्व गुणभी है जिसकी कि वजहसे यह पदार्थ प्रतिक्षण किसी खास हालतमें नहीं रहता किन्तु प्रतिसमय अपनी हालतें बदलता रहता है । इस तरह अपने अपने गुणपर्यायोंसे वर्तते हुए पदार्थोंको परि-वर्तन करनेमें जैसे कि कुमारका चक्र (चाक) कुमारके हाथसे 'घुमाया हुआ उसके हाथ हटानेपरभी अपने आप भ्रमण करता है और उसके भ्रमण करनेमें उसके नीचे गड़ी हुई लोहेकी कीली सहकारी कारण है, उसही तरह सहकारी कारण कालद्रव्य हैं जो कि लोकमात्र हैं, अर्थात् जितने लोकाकाशके प्रदेश हैं उतनेही कालगन्य हैं और लोकाकाशके बाहर कालद्रव्य नहीं हैं । (शंका)
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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