SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [१६१] (समाधान )-आकाशद्रव्य सदा विद्यमान है । इसलिये ध्रौव्यमें तो कोई शंका ही नहीं है, रहा उत्पाद और व्यय सो इस प्रकार है कि, समस्त द्रव्योंमें उत्पाद और व्यय दो प्रकारसे होते हैं, १ स्वप्रत्यय और २ परप्रत्यय । समस्त द्रव्योंमें अपने अपने अगुरुलघुगुणके पट्स्थानपतितहानिवृद्धिद्वारा परिणमनको स्वप्रत्ययउत्पाद-- व्यय कहते हैं । भावार्थ-प्रत्येक द्रव्यमें अपने अपने अगुरुलघुगुणकी पूर्व अवस्थाके त्यागको व्यय कहते हैं और नवीन अवस्थाकी प्राप्तिको उत्पाद कहते हैं । इन व्यय और उत्पादमें किसी दूसरे पदार्थकी अपेक्षा नहीं है, इसलिये इनको स्वप्रत्यय (स्वनिमित्तक) कहते हैं । जीव और पुद्गलद्रव्यमें अनेक प्रकार विभाव व्यञ्जनपर्याय होते रहते हैं । प्रथम समयमें किसी एक पर्यायरूपपरिणत जीव अथवा पुद्गलद्रव्यको आकाशद्रव्य अवकाश देता था, किन्तु दूसरे समयमें वही आकाशद्रव्य किसी दूसरी पर्यायरूपपरिणत उस ही जीव अथवा पुद्गलको अवकाश देता है। जब अवकाशयोग्य पदार्थ एक स्वरूप न रहकर अनेकरूप होता रहता है, तो आकाशकी अवकाशदातृत्वशक्तिमें भी अनेकरूपता स्वयंसिद्ध है । यह अनेकरू. पता जीव और पुद्गलके निमित्तसे होती है, इसलिये इसको परप्रत्यय कहते हैं । भावार्थ-अनेक पर्यायरूपपरिणत जीव और पुद्गलको अवकाश देनेवाले आकाशद्रव्यकी आकाशदातृत्वशक्तिकी पूर्व अवस्थाके त्यागको परप्रत्यययय कहते हैं और नवीन अवस्थाकी प्राप्तिको परप्रत्ययउत्पाद कहते हैं । इसही प्रकार धर्म अधर्म काल और शुद्ध जीवमें भी स्वप्रत्यय और परप्रत्यय उत्पादव्यय घटित कर लेना चाहिये। भावार्थ-समस्त गायोंमें अगुरुलघुगुणके परिणमनसे स्वप्रत्ययउत्पाद-व्यय होते हैं और अनेक प्रकार गतिरूप-परिणत - ११ जे.सि.द.
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy