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________________ [१५९] इसही प्रकार असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानिका स्वरूप जानना चाहिये । अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाणमें संख्यातका भाग देनेसे जो लब्धि आवे, उसको संख्यातगुणहानि कहते हैं । जैसे अविभागप्रतिच्छेदोंके प्रमाण २५६ में संख्यातके प्रमाण ४ का भाग देनेसे ६४ पाये, इसही प्रकार असंख्यातगुणहानि और अनन्तगुणहानिका स्वरूप जानना । इस षट्स्थानपतितहानिवृद्धिका खुलासा अभिप्राय यह है कि, जब किसी गुणमें वृद्धि या हानि होती है, तो एक या दो अविभागप्रतिच्छेदोंकी वृद्धि या हानि नहीं होती, किन्तु वृद्धि और हानिके उपर्युक्त छह छह स्थानोंमेंसे किसी एक स्थानरूप वृद्धि या हानि होती है । इस प्रकार जैनसिद्धान्तदर्पणग्रंथमें धर्मअधर्मनिरूपणनामक पांचवां अध्याय समाप्त हुआ । छट्टा अधिकार | आकाशद्रव्यनिरूपण । जो जीवादिक समस्त द्रव्योंको युगपत् अवकाश दान देता है, उसको आकाशद्रव्य कहते हैं । यह आकाशद्रव्य सर्वव्यापी अखंडित एकद्रव्य है । यद्यपि समस्त ही सूक्ष्मद्रव्य परस्पर एक दूसरेको अवकाश देते हैं, परन्तु आकाशद्रव्य समस्तद्रव्योंको युगपत् अवकाश देता है, इस कारण लक्षणमें अतिव्याप्ति दोष नहीं आता है । यदि कोई क कि, यह अवकाश - दातृत्व-धर्म लोकाकाशमें ही है, अलोकाकाशमें नहीं है । क्योंकि अलोकाकाशमें कोई दूसरा द्रव्यही नहीं है । इस कारण आकाशके लक्षणमें अव्याप्तिदोष आता है । सो भी ठीक
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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