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________________ [ १५२] इस ही अधिकारके अन्तमें कहा जावेगा, वहांसे जानना ) द्वारा अगुरुलघुगुणके अविभागप्रतिच्छेदोंकी हीनाधिकतासे उत्पादव्ययस्वरूप है । अपने खरूपसे च्युत न होनेसे नित्य है, गतिक्रिया - परिणत जीव और पुद्गलको उदासीन सहाय मात्र होनेसे कारणभूत है । आप किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ है, इसलिये अकार्य है । जैसे जल स्वयं गमन न करता हुआ तथा दूसरोंको गतिरूप परिणमाने में प्रेरक न होता हुआ, अपने आप गमनरूप परिणमते हुए . मत्स्यादिक ( मछलीवगैरह ) जलचर जीवोंको उदासीन सहकारीकारण मात्र है, उस ही प्रकार धर्मद्रव्य भी स्वयं गमन नहीं करता हुआ तथा परको गतिरूप परिणमानेमें प्रेरक न होता हुआ स्वयमेव गतिरूप परिणमे जीव और पुद्गलोंको उदासीन अविनाभूत सहकारीकारण मात्र है । अर्थात् जीव और पुद्गलद्रव्य परगति -- सहकारित्व - रूप धर्मद्रव्यका उपकार है । जिस प्रकार धर्मद्रव्य गतिसहकारी है, उस ही प्रकार अधर्मद्रव्य स्थितिसहकारी है । भावार्थ - जैसे पृथ्वी स्वयं पहलेहीसे स्थित रूप है, तथा परकी स्थितिमें प्रेरकरूप नहीं है । किन्तु स्वयं स्थितिरूप परिणमते हुए अश्वादिकों (घोडे वगैरह ) को उदासीन अविनाभूत सहकारी कारण मात्र है, उस ही प्रकार अधर्मद्रव्य भी स्वयं पहलेहीसे स्थितिरूप परके स्थितिपरिणाममें प्रेरक न होता हुआ स्वयमेव स्थितिरूप परिणमें जीव और पुद्गलोंको उदासीन अविनाभूत सहकारी कारण मात्र है । अर्थात् जीव और पुद्गल द्रव्य पर-स्थितिसहकारित्वरूप अधर्मद्रव्यका उपकार है । जिस प्रकार गतिपरिणामयुक्त पवन, ध्वजाके गतिपरिणामका हेतुकर्त्ता है, उस प्रकार धर्मद्रव्यमें गति हेतुत्व नहीं है । क्योंकि
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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