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________________ [१२९] ४१३४५२६३०३०८२०३१७७७४९५१२१९२००००००००००० ००००००० हुई । इस गर्त्तके एक एक रोमको सौ सौ वर्ष पीछे निकालते निकालते जितने कालमें वे सब रोम समाप्त हो जाय, उतने कालको व्यवहारपल्यका काल कहते हैं । उपर्युक्त रोमसंख्याको सौ वर्षके समयसमूहसे गुणा करनेसे व्यवहारपल्यके समयोंका प्रमाण होता है । (एक वर्षके दो अयन, एक अयनकी तीन ऋतु, एक ऋतुके दो मास, एक मासके तीस अहोरात्र, एक अहोरात्रके तीस मुहूर्त, एक मुहूर्त्तकी संख्यात आवली और एक आवलीके जघन्ययुक्तासंख्यात प्रमाण समय होते हैं) । व्यवहारपल्यके एक एक रोमखंडके असंख्यातकोटिवर्पके समयसमूहप्रमाण खंड करनेसे उद्धारपल्यके रोमखंडोंका प्रमाण होता है । जितने उद्धारपल्यके रोमखंड हैं उतने ही उद्धारपल्यके समय जानने । एक कोटिके वर्गको कोडाकोडि कहते हैं । द्वीप समुद्रोंकी संख्या, उद्धारपल्यसे है । अर्थात् उद्धारपल्यके समयोंको २५ कोडाकोड़िसे गुणा करनेसे जो गुणनफल होता है, उतने ही समस्त द्वीपसमुद्र हैं। उद्धारपल्यके प्रत्येक रोमखंडके असंख्यात वर्षके समयसमूहप्रमाण खंड करनेसे अद्धापल्यके रोमखंड होते है । जितने अद्धापल्यके रोमखंड हैं, उतने ही अद्धापल्यके समय हैं । कर्मोंकी स्थिति अद्धापल्यसे वर्णन की गई है । पल्यको दस कोड़ाकोड़िसे गुणा करनेसे सागर होता है । अर्थात् दस कोडाकोड़ि व्यवहारपल्यका एक व्यवहारसागर, दस कोडाकोड़ि उद्धारपल्यका एक उद्धारसागर और दस कोड़ाकोड़ि अद्धापल्यका एक अद्धासागर होता है । किसी राशिको जितनी वार आधा आधा करनेसे एक शेष रहे, उसको अर्द्धच्छेद कहते हैं । जैसे चारको दो वार आधा आधा करनेसे एक जे.ति. द.
SR No.010063
Book TitleJain Siddhant Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGopaldas Baraiya
PublisherAnantkirti Digambar Jain Granthmala Samiti
Publication Year1928
Total Pages169
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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