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________________ किरण ४ j श्रवणबेलगोल के शिलालेख २३९ संघ में चतुर्वर्ण के लोग सम्मिलित थे। लेख नं० ४२ (शक १८९९) मे चतुर्वर्ण को दान देने का उल्लेख है। लेख नं० १०२ (शक १४५९) मे चेन्नय्यमाली के दान देने का उल्लेख है। और तो और नृत्यकारिणी मंगायि को भी धर्माराधना का पूर्ण अवसर प्राप्त था। वह श्रीमद् अभिनव चारुकीत्ति पण्डिताचार्य की शिष्या और सम्यक्त्वाद्यनेक-गुण-गणामरणभूषित थी। उसने 'त्रिभुवनचूड़ामणि' नामक चैत्यालय निर्माण कराया था, जो आज भी बेलगोल में एक दर्शनीय वस्तु है। (देखो लेख नं० १३२)। एक अन्य लेख से सुनार जातीय भक्त के सल्लेखनाव्रत धारने की वार्ता स्पष्ट होती हैं। स्त्रियों को तो धर्माराधना की पूर्ण स्वाधीनता प्राप्त थी। सारांशतः प्रत्येक भव्य जीव को तब के जैनसंघ मे धर्म की आराधना करने के लिये सुअवसर प्राप्त था। साथ ही साम्प्रदायिक विरोध भी कभी-कभी तो नहीं के बराबर देखने को मिलता है। सम्राट विष्णुवर्द्धन वैष्णव हो जाते हैं, परन्तु उस पर भी वह जैन मंदिरों को दान देते है। उनकी पट्टरानी शान्तल देवी जीवनपर्यन्त जैनधर्मानुयायिनी रही थीं और अनेक जिनमंदिरों को दान देती रही थीं। होयसल नरेश वल्लाल द्वितीय के मंत्री चन्द्रमौलि वेदानुयायी ब्राह्मण थे, परन्तु उनकी भार्या आचियफ जिनधर्मावलम्बिनी क्षत्रियाणी थी। उन्होंने बेलगोल मे पाश्वनाथवस्ति का निर्माण कराया था। लोगों में धार्मिकता यहाँ तक बढ़ी-चढ़ी थी कि अपने दानधर्म का पुण्यफल दूसरों के देने का संकल्प करते थे। लेख नं० १०० में चिक्करण ने चौडिसेट्टि को एक 'धर्मसाधन' दिया था, क्योंकि उन्होंने उसे कष्ठमुक्त किया था। यही वात लेख नं० १०१ से प्रकट होती है। किन्हीं लेखों के अन्त में दान की रक्षा के लिये काशी-रामेश्वर और कुरुक्षेत्र मे कपिलादि गाय और ब्राह्मणो की हत्या का पाप लगने का उल्लेख धार्मिक सहिष्णुता का द्योतक है । जैनों की वीरता श्रवणबेलगोल के शिलालेखों में जहाँ एक ओर धार्मिक उदारता के दिग्दर्शन होते हैं. वहाँ दूसरी ओर जैनों की वीरता के अपूर्व दर्शन भी मिलते हैं। इस वीरता के दो अलग क्षेत्र वहाँ दिखाई पड़ते हैं। एक ओर कर्मवीर है तो दूसरी ओर धर्मवीर। कर्मवीर अन्ततः धर्मवीर बनते मिलते हैं। इन वीरों का पूर्ण परिचय लिखने के लिये इस अंक के पृष्ठ शायद ही पर्याप्त हों। सम्राट मारसिंह. सम्राट् इन्द्र, सम्राट् राचमट, वीरवर चामुण्डराय, दण्डाधिप गगराज, मंत्रिप्रवर दुह प्रभृति अगणित नरपुंगव ऐन हैं जो फर्मवीर और धर्मवीर दोनों। उन्होंने रणक्षेत्र में तलवार के जौहर दिग्वाय नो धर्मनेत्र में जैनाचार्यों के चरण मन में धर्माराधना फरफे सल्लेसना-वन-द्वारा प्राणोसग रिच ! नवीरना के पोर मनिपर उसलों देरों-गणिलालेग-रंभ' पृष्ट १५ ॥
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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