SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भास्कर [भाग वीरमार्तण्ड कवियों के सच्चे आश्रयदाता थे। जिस समय महाकवि न्न विद्याध्ययननिमित्त अपने बन्धु-बान्धव एवं जन्मभूमि को त्याग कर गङ्गराजधानी में पहुंचे उस समय चावुण्डराय ने इनकी विद्यारुचि, मुख की तेजस्विता आदि गुणों का अनुभव कर इन्हें अपने पाल रक्खा और इनके अध्ययन की पूरी-पूरी व्यवस्था कर दी। चावुण्डराय के हस्तावलम्बन से कुछ ही समय में रन्न एक अद्वितीय कवि निकले, जिनकी प्रशंसा आज भी सम्पूर्ण कर्णाटक मुक्तकण्ठ से सगर्व कर रहा है। यह कवि कन्नड कविरत्नत्रयों में अन्यतम हैं। इनकी कविता से मुग्ध होकर ही राजा तैलपने 'कविचक्रवर्ती' की बहुमूल्य उपाधि प्रदान की थी। अगर वीरमार्तण्ड असहाय रन्न को उस समय आश्रय नहीं देते तो आज कर्नाटक को इनकी सुधामयी कविता के रसास्वादन का सौभाग्य कमी प्राप्त नहीं होता। यों तो वीरमार्तण्ड चावुण्डराय के बहुमूल्य जीवन का अधिकांश भाग रण-क्षेत्र मे ही व्यतीत हुआ है, फिर भी देवपूजा, गुरूपासना, स्वाध्याय, संयम एवं दान आदि गार्हस्थ्य दैनिक कर्म भी इनसे अलग नहीं हुए थे। वीरमार्तण्ड एक सच्चे दृढ श्रद्धालु नैष्ठिक श्रावक थे। इसीलिये कहा गया है कि निश्शङ्कादिगुणपरिरक्षणैककारण ही 'गुणवं कावं', 'सम्यक्त्वरत्नाकर' एवं 'गुणरत्नभूपण' ये उपाधियों इन्हें प्राप्त थीं। बल्कि यह श्रावक के अहिंसादि अणुव्रतों के पूर्ण परिपालक थे। अत एव 'शौचाभरण', 'सत्ययुधिष्ठिर' आदि बिरुदों से भी अलंकृत रहे। साथ ही साथ चावुण्डराय एक जनप्रिय होने के हेतु 'अण्ण' जैसे बन्धुत्वसूचक सम्मानित नाम से भी पुकारे जाते थे। इसमें शक नहीं है कि वीरमाण्ड का अन्तिम जीवन विशिष्ट धर्म-सेवन के साथ व्यतीत हुआ होगा। प्राचार्य नेमिचन्द्र जी जैसे महान विद्वान् का सम्पर्क इसमे मुख्य कारण है। चावुण्डराय ने अपनी धवल कीति को अमर बना रखने के लिये श्रवणबेलगोल जैसे प्रमुख सप्राचीन पुण्यतीर्थ को जो चुना है, यह बड़ी ही बुद्धिमत्ता का काम है। वास्तव में इनके द्वारा स्थापित उपर्युक्त गोम्मट-मूर्ति से इस तीर्थ की महिमा और भी बढ़ गई हैं। इस दृष्टि से इन्हें इस पवित्र भूमि का उद्धारक कहना सर्वथा समुचित है। आजतक बराबर यह क्षेत्र जनता की नजरों से आकृष्ट रहने का एकमात्र कारणा उल्लिखित गोम्मट-मूर्ति ही है। अन्यथा दनिया के कोपया आदि अन्यान्य प्राचीन क्षेत्रो के समान ऐतिहासिकदृष्टि से अन्वेषक विद्वानों के लिये ही यह स्थान एक अन्वेषणीय वस्तु मात्र रह जाता। इस पुनीत तीर्थ को अभिवृद्धि का सारा श्रेय वीरशिरोमणि चावुण्डराय को ही मिलना चाहिये। अव, सर्वप्रयत्न से उक्त इस मति की रक्षा के सम्बन्ध मे पूर्ण सचेत रहना सम्पूर्ण जैन समाज का प्रधान एवं परम कर्तव्य है। जैनियों को यह याद रखना चाहिये कि जब तक श्रवणबेलगोल मे यह गोम्मट-मूर्ति विराजमान रहेगी तभी तक इस क्षेत्र का बोलवाला रहेगा। जैनसमाज का मुख उज्ज्वल रखने के लिये यह मूर्ति वास्तव में एक बहुमूल्य रत्न है। देखें , जैनसमाज इस मस्तकाभिषेक के सअवसर पर इस मूति-रक्षा की ओर कहाँ तक ध्यान देता है। मैसूर सरकार को भी इस पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy