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________________ किरण ४j पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद રેરક पहुंची है। एक विद्वान् व्यक्ति लेखनी के द्वारा जानबूझ कर इतनी बड़ी भूल कर सकता है, यह मेरा आत्मा मानने के लिये तैयार नहीं है। सर्वार्थसिद्धि के जिस प्रकरण में उक्त वाक्य है, उसका आशय कोठारी जी ने क्या समझा है ? यह तो वे ही बतला सकते है। किन्तु प्रकरण यह है कि टीकाकार पूज्यपाद ने "पीता च पद्मा च शुक्ला च ताः पीतपद्म शुक्लाः' इस प्रकार सूत्रस्थ पद का समास किया। उस पर शिष्य ने पूछा- कथं हस्वत्वम्" अर्थात् पीता का पीत इत्यादि में हस्वत्व कैसे हो गया ? आचार्य ने उत्तर दिया'औत्तरपदिकम्' अर्थात्-उत्तर पद परे रहते हस्वत्व हो गया है। अपने इस उत्तर की पुष्टि में प्राचार्य ने 'यथाहुः' करके 'दूतायाम्' इत्यादि वाक्य प्रमाण-रूप म उद्धृत कर. दिया । अर्थात्-जैसे 'मध्यमविलम्बितयोः' में (मध्यमा च विलम्बिता च मध्यमविलम्बिता) उत्तरपद 'विलम्बित' रहते हुए 'मध्यमा' पद को ह्रस्वत्व हो गया है, उसी प्रकार यहां पर' भी जानना चाहिये। 'यथाहुः' का 'आहुः' पद ही यह बतलाता है कि प्रन्थकार किसी अन्य पुरुष का प्रमाणवाक्य दे रहे हैं। सम्भवतः इसी से कोठारी जो ने इसे प्रमाणरूप में उपस्थित करते समय 'आहु.' पद को छोड़ कर केवल 'यथा' शब्द का उल्लेख किया है। महाभाष्य से स्पष्ट है कि अपने मत के समर्थन में पूज्यपाद ने जिस वाक्य को प्रमाणरूप से उपस्थित किया है, वह कात्यायन की वार्तिक है। अतः पाणिनि और उनके वार्तिकफार कात्यायन, दोनों पूज्यपाद के पूर्ववर्ती हैं, यह निर्विवाद है। और भी लीजियेसर्वार्थसिद्धि, अध्याय ७, सूत्र १६ की व्याख्या में 'मैथुन' शब्द का अर्थ बतलाते हुए' पूज्यपाद स्वामी अपने अर्थ के समर्थन में शास्त्र का प्रमाण देते हुए लिखते है-"शास्त्रेऽपि 'अश्ववृपभयोमथुनेच्छायाम् इत्येवमादिषु तदेव गृह्यते'। इस वाक्य में उद्धृत 'अश्ववृषभयोमथुनेच्छायाम्' पद पाणिनि के ७-१-५१ सूत्र पर कात्यायन की प्रथम वार्तिक है। यहाँ पूज्यपाद ने कात्यायन की वार्तिक अथवा भाष्य का 'शास्त्र' शब्द से उल्लेख किया है। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पूज्यपाद और पाणिनि समकालोन नहीं थे। अतः कन्नड के पूज्यपाद-चरित्र के आधार पर कोठारी जी ने जो कुछ हवाई महल खड़ा किया है, ऐतिहासिक जगत में उसका कोई मूल्य नहीं आंका जा सकता और न इस तरह की असत्कल्पनाओं से जैनसाहित्य और जैनाचार्यों का महत्त्व ही बढ़ सकता है। पार्श्वनाथ-चरित का श्लोक वादिराज के पार्श्वनाथचरित के प्रथम परिच्छेद में तीन श्लोक निम्न प्रकार से मुद्रित है। स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहम् । देवागमेन सर्वज्ञो येनाद्यापि प्रदश्यते॥१७॥
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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