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किरण ४]
पाणिनि, पतञ्जलि और पूज्यपाद
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माना जावे तो पाणिनि का समय ईसा की पांचवों शताब्दी नहीं हो सकता, क्योंकि हम ऊपर वतला आये है कि पाणिनि और पतञ्जलि कभी भी समकालीन नहीं हो सकते। राजतरङ्गिणी में एक श्लोक निम्न प्रकार से मिलता है
चन्द्राचार्यादिमिर्लब्धादेशं तस्मात्तदागमम् ।
__प्रवर्तितं महाभाष्यं स्वं' च व्याकरणं कृतम् ।।१- १७६ ।। अर्थात्-चन्द्र आदि आचार्यों ने उसकी (राजा अभिमन्यु की) आज्ञा प्राप्त करने के वाद महाभाष्य का उद्धार किया और अपना व्याकरण (चन्द्रव्याकरण) बनाया ।
भर्तृहरि के 'पर्वतादागमं लब्ध्वा' आदि श्लोक के साथ इस श्लोक को पढ़ने से दोनों का आशय एक सा लगता है। यह चन्द्र चन्द्रव्याकरण का प्रणेता वैयाकरण चन्द्र ही प्रतीत होता है। यह चन्द्रः पूज्यपाद का पूर्ववर्ती माना जाता है। अतः इस उल्लेख के आधार पर न केवल पाणिनि, किन्तु भाष्यकार पतञ्जलि भी पूज्यपाद के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। __इस प्रकार पाणिनि और पतजलि के साहित्य तथा अन्य उल्लेखों के आधार पर न केवल पाणिनि अपि तु पतञ्जलि भी पूज्यपाद के समकालीन या बाद के सिद्ध नहीं होते पेसी दशा में कोठारी जी ने उनको समकालीन सिद्ध करने के लिये जो प्रमाण दिये हैं, उन पर विचार करना केवल लेख की कलेवर-वृद्धि का ही कारण होगा। तथापि पाठकों को यह बतलाने के लिये कि कोठारी जी ने इस गुरुतर ऐतिहासिक कार्य में कितने उतावलेपन से विना विचारे लेखनी चलाई है, उनके कुछ प्रमाणों पर विचार किया जाता है।
पाणिनि तथा जैनेन्द्रव्याकरण के बहुत से सूत्र परस्पर में मिलते हैं। इसके आधार पर पूज्यपाद-चरित की इस बात को प्रमाणित करना कि पूज्यपाद ने पाणिनिव्याकरण को पर्ण किया था, केवल हास्यास्पद है। इसी तरह यदि भाष्यकार या कोशिकाविवरणकार किसी मत को पूर्वाचार्य का बतलाते हैं और वह मत जैनेन्द्र-व्याकरण के रचयिता का भी है तो 'भाष्यकार और का० विवरणकार ने पूज्यपाद के मत का उल्लेख किया है। यह कल्पना तभी सत्य समझी जा सकती है जब उनसे पहले केवल पूज्यपाद ही ऐसे वैयाकरण सिद्ध हों, जिनका उक्त मत रहा हो। विना ऐसा किये यह तो असिद्ध को
१ मि० ट्रोयर ने अपने संस्करण में 'चन्द्रव्याकरणं कृतम्' पाठ दिया है। ऐसा गोल्डस्टूकर लिखते हैं।
२ देखो-'अन्नल्स आफ भण्डारकर पूना, जि० १३, पृ० २५ पर डा० पाठक का लेख।
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