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धवल्गोल !
[ रचयिता – श्रीयुत कल्याणकुमार जैन, 'शशि' ]
तुम प्राचीन कलाओं का आदर्श विमल दरशाते भारत के ध्रुव गौरव-गढ़ पर जैन-केतु फहराते कला-विश्व के सुप्त प्राण पर अमृत रस बरसाते निधियों के हत साहस में नवनिधि - सौरभ सरसाते
आओ इस आदर्श कीर्ति के दर्शन कर हरषाओ वन्दनीय हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ | ( २
अतीत तुम्हारा
शुभस्मरण कर तीर्थराज हे शुभ्र फूल-फूल उठता है अन्तस्तल सुरसरि
स्वयमेव हमारा
-सहश वहा दी तुमने पावन गौरव - धारा तीर्थक्षेत्र जग में तुम हो देदीप्यमान ध्रुवतारा
खिले पुष्प की तरह विश्व में नवसुगन्ध महकाओ वन्दनीय हे जैनतर्थि तुम युग-युग में जय पाओ ॥ ( ३ )
दिव्य विंध्यगिरि भव्य चन्द्रगिरि की शोभा है न्यारी पुलकित हृदय नाच उठता है हो बरबस आभारी यश-धारी श्रुत-केवली सुभद्रबाहु सम्राट् महा तप-तप घोर समाधिमरण कर यहीं कीर्ति विस्तारी
मान बढ़ाओ
उठो पूर्वजों की गाथाएं जग का चन्दुनी हे जैनतीर्थ तुम युग-युग में जय पाओ |