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भास्कर
[भाग ६
इस बात को मैं भी मानता हूं कि श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त की दक्षिणयात्रा के पूर्व भी दक्षिण भारत मे जैनधर्म मौजूद था। अन्यथा श्रुतकेवली जी को इतने विशाल जैनसंघ को यहाँ पर ले जाने का साहस नहीं होता। इस बात की पुष्टि सिहलीय 'महावंश' नामक सुप्राचीन बौद्धग्रन्थ से भी होती है। परन्तु उस समय का इतिहास अभी अन्धकार में छिपा हुआ हैं। इसलिये एक प्रकार से दक्षिण भारत के जैनइतिहास का सूत्रपात यहो से माना जाता है। बल्कि आज भी अधिकांश विद्वानों का खयाल है कि भद्रबाहु-चन्द्रगुप्त की यात्रा के उपरान्त ही दक्षिण भारत मे जैनधर्म का प्रसार हुआ। इसमे कुछ भी सन्देह नहीं है कि उपर्युक्त यात्रा के पश्चात् ही यहां पर जैनधर्म को सार्वभौम एवं सर्वव्यापक होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। उत्तर भारत से गये हुए विद्वान् जैनमुनियों ने प्रत्येक प्रान्त मे जा-जाकर अपने धर्म, साहित्य एवं संस्कृति का इतना प्रचार किया कि अन्य धर्मावलम्बियों को भी उनका लोहा मानना पड़ा। बाहर से जाकर उन प्रान्तों की भिन्न-भिन्न भाषाओं को जानकर उनमें सर्वोच्च प्राचीनतम साहित्य की सृष्टि कर उसी के द्वारा अपने धर्म का द्रुतगति से प्रचार करना कोई साधारण बात नहीं है। __जैनधर्म के उस सुवर्ण-युग मे प्रचुर संख्या मे हिन्दूधर्म के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जैसे उच्चवर्ण के लोग सहर्ष जैन धर्म मे दीक्षित हुए। यह दीक्षा-द्वार दीर्घकाल तक उन्मुक्त रहा। यहाँ के अनेक जैनपरिवारों मे अबतक इन्ही अपने प्राचीन भारद्वाज, आत्रेय, गर्ग आदि हिन्दुत्व-सूचक गोत्रसूत्रादि का प्रचलन ही इस बात के लिये एक ज्वलन्त दृष्टान्त है। इतना ही नहो समन्तभद्र जैसे जैनधर्म के स्तम्भस्वरूप सुप्राचीन आचार्यों ने जिन कतिपय क्रियाओं को लोकमूढ, देवमूढ आदि विशेषणों से पूर्व मे घोषित किया था ऐसी कई क्रियायें-जो जैनमूलसिद्धान्त के विरुद्ध हैं-इन्हीं नवदीक्षित हिन्दुओं से जैनधर्म में प्रविष्ट हुई। बल्कि लगभग ७ वी-८ वी शताब्दी से कुछ ऐसी क्रियायें जैनकर्मकाण्ड आदि ग्रंथो मे भी स्थान पा गयों। ये सब बातें सर्वप्रथम भगवजिनसेनाचार्य-कृत महापुराण मे ही हमे दृष्टिगोचर होती हैं। इसके लिये कतिपय श्रद्धय आचार्यों को दोपी ठहराना एकान्त भूल है। क्योंकि वह ऐसा ही एक जमाना था कि आपद्धर्म-रूप में इन चीजों को यदि वे नही अपनाते तो दक्षिणभारत मे जैनधर्म का सार्वत्रिक प्रचार एव रक्षा असाध्य सी हो जाती। क्योकि इस समय शंकराचार्य, मध्वाचार्य आदि हिन्दू-धर्माचार्य जैनधर्म के विरुद्ध खुले आम हो गये थे और पर्वोक्त आचरणों के अभाव में जैनियों को नास्तिक कहते हुए जनता को भड़का कर उलटा लाभ उठाना चाहते थे। इससे जैनधर्म के प्रचार में ही रोड़ा नहीं अटका, बल्कि जिस प्रबल राजाश्रय के द्वारा दक्षिण मे जैनधर्म फल-फूल रहा था उससे भी इसे हाथ धोने का मौका आ गया था। ऐसी दशा मे कुछ नूतन आचार-विचारों का अपने धर्मग्रंथों मे प्रश्रय देकर हमारे