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( ५० )
सामयिक है, इसलिये जैनधर्म प्रतिपादित श्रहिंसा सर्वोत्कृष्ट है ।
( ४ ) जैसे सूर्य का प्रकाश या वायु का संचार अथवा श्राकाश का अस्तित्व सार्वभौमिक है, उसी प्रकार श्रहिंसाधर्म मी सार्वभौमिक धर्म है ।
(५) जैनधर्म की अहिंद का पूर्ण रूप से प्रचार न होने के कारण ही जनता निर्वल निर्धन होती जा रही है और वह पराधीनता के बन्धन से जकड़ी जा रही है । कल्पना कीजिये कि यदि जैनधर्म की हिंसा नीति का पालन समूचय संसार करने लग जाय तो क्या परिणाम होगा ? कोई भी किसी के स्वत्व का अपहरण नहीं करेगा । कहीं भी किसी के साथ किसी को युद्ध करने की श्रावश्यकता न रह जायगी । सर्वदा सर्वत्र सत्युग की स्थापना हो जायगी । सबके साथ सब किसी का सद्व्यवहार होने लगेगा । ईर्षा, द्रोह, कपट इत्यादि श्रात्म-नाशक दुर्गुणों की नामावली को होश में रखने की आवश्यकता नहीं रह जायगी ।
( ६ ) जव तक
हिंसा का सूर्य पूर्ण रूप से भारत
दे
में उदित था; तब तक अनेक चक्रवर्ती भूपों ने अहिंसा का पालन करते हुए भी चिरकाल तक अखण्ड राज्य किया ।