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( १४१ ) तुं आपजे मुज मोह कापी, आदशा करुणा निधि ॥ ३ ॥ तुज चरण कमलनो दीवडो, रुडो हृदयमा राखजो। अज्ञान मय अंधकारनो, आवासं तुरत बालजो ॥ तद्प थइते दीवडे, हुं स्थिर थई चित्त बांधतो । तुज चरण युग्मनी रजमहि, हुं प्रेमथी नित्य डूबतो ॥ ४ ॥ प्रमादथी प्रयाण करीने, विचरता प्रभु अहीं तहीं । एकेन्द्रियादि जीवने, हणतां कदी डरतो नहि ॥ छेदी विभेदी दुःख दई, में त्रास आप्यो तेमने । करजो क्षमा मुज कर्महिंसक, नाथ विनवू आपने ॥ ५ ॥ कषायने परवश थई बहु, विषय सुख में भोगव्या । चारित्रना जे भंग विभु, मुक्ति प्रतिकूल थई गया ।। कुबुद्धिथी अनिष्ट किंचित, आचरण में आदर्यु । करजो क्षमा सौ पापते, मुज रंकनुं जेजे थयुं ॥६॥ मन वचन काय कषाय थी, कीधां प्रभु में पाप बहु । संसारनां दुःख बीज सौ, वाव्यां अरे हुं शुं कहुं ।। . ते पापने आलोचना, निंदा अने धिक्कार थी । हुँ भस्म करतो मंत्र थी, जेम विष जातुं वादीथी॥ ७ ॥ मुज बुद्धिना विकारथी, के संयमना अभावथी। बहु दुष्ट दुराचार में, सेव्या प्रभु कुबुद्धिथी ॥ करवु हतुं ते ना कयु, प्रमाद केरा जोरथी । सौ दोष मुक्ति पामबा, मांगु क्षमा हु हृदय थी ॥ ८॥ मुंज मलीन मन जो थायतो, ते दोष अतिक्रम जाणतो। वली सदाचारे भंग बनतां, दोष व्यतिक्रम मानतो।।