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( ९० ) पड़ कर अनंत यातनाएँ भोगते हुए पश्चाताप करते हैं।
राजेश्वर सो नरकेश्वर' यह सूत्र अनुभवी पुरुषो ने यथार्थ फरमाया है। राजेश्वर का अर्थ राजा या चक्रवर्ती ही नहीं है किन्तु अधिक संपत्तिशाली पुरुषों का भी उसमे समावेश है। ऐसे जो पुरुष अपनी संपत्ति का उपयोग केवल विषय सुख की प्राप्त्यर्थ करते हैं वे अवश्यमेव दुर्गति के अधिकारी हैं।
असंज्ञी पचेन्द्रि जीव पहली नरक का और संज्ञी पचेंद्रिय जीव सातवीं नरक तक का अधिकारी होता है अर्थात् अधिक संपत्तिशाली अधिक पाप कर्म करके अधिक नीची गति में जाता है और संपत्तीहीन, साधनों के अभाव में उतने अधिक पाप करने में असमर्थ होने की वजह से उतना नीचे नहीं जाता है । रबर की गेंद जमीन पर गिरते ही ऊंची उछलती है और लोहे के गोले की गति निचे की ओर ही होती है। लोहे का भारी पन ही उसकी नीच गति का कारण है। इसी तरह संपत्ति द्वारा अपनी आत्मा को विषय कपायादि से अधिक भारी बनाने वाला अधिक नीची गति में जाता है और संपत्ति रहित प्राणी उतनी नीची गति में जाने में सहसा समर्थ नहीं हो सकता है । संपत्ति का सदुपयोग
सुख का और दुरुपयोग दुःख का साधन है। इसलिये । सुख के लिये यत्न करना चाहिये सुज्ञेषु किं बहुना ।