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(अपूर्व अवसर ) आत्मराम अविनाशी आव्यो एकलो । ज्ञान अने दर्शन छे तेनुं रूप जो॥ बाहेर भावो स्पर्श करे नहिं आत्मने । 'पर' थकी छे तेनुं भिन्न स्वरूप जो ॥१॥ सर्व प्राणी पर समता भावो राखतो। वसे नहीं ज्यां वेर मात्रनुं नाम जो ॥ लोक तणी सौ आशाओं ने त्यागी ने । समाधिमां हुं जोडं म्हाराराम जो ॥२॥ विकल्प छोड़ी आत्मरामने जोड़ता। महत् पुरुष जे निज आत्मानी साथ जो, योग भक्ति तो तेज पुरुषनी जाणवी । अन्य प्रकारे योग तणी नहिं बात जो.॥ ३ ॥ द्रव्य आव्युं छे मूज आगल आ पारकुं । समजी एवं छोडे परतुं द्रव्य जो ॥ 'परभावो' त्यम आत्मज्ञानीओ छोड़ता। स्वरूप समजी सुखने लेता द्रव्य जो ॥४॥ संबंध छे नहिं मोह साथ कांय मायरो। ज्ञान अने दर्शनमा रमतो नित्यजो ॥ आत्मरामनो ज्ञाता हुँ अङकुं नहिं । भीषण म्हारो मोह शत्रु निश्चित जो ॥ ५॥ स्वरूप तो छे एकज म्हारा आत्मर्नु । विशुद्ध दर्शन ज्ञानमय ते होय जो ॥