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जोवो को कैसे खाया जाय :-इसी तरह किसी को जीव समझना और उसी को जान बूझकर खाना, फिर उस पर दया दिखलाने की रट लगाना, निहायत शर्म की बात है। या तो हमें समझ लेना चाहिए कि हम जो कुछ खाते है वे सव एकेन्द्रीय जीवो के त्याज्य पदार्थ है या उनके जीवन का पूरा उपभोग हो जाने के वाद के अवशेष है या वे एक प्रकार के पदार्थ हैं, जो प्रति प्रदत्त हमारी सहज खुराक है, जिन्हे ग्रहण करने मे हमे पाप नही लगता। __व्या हमें आम और आम के वृक्ष में अन्तर नही मालूम पडता? क्या दोनों एक कोटि के जीव है ? क्या गेहूँ और गेहूँ का पौधा समान है ? सम्भवतःवे समान नही है। उनके अकूरित होने की क्रिया को देख कर उन्हें भले ही जीव मान लें पर इस पर भी हमें गम्भीर विचार करने की आवश्यकता है। भिगोने पर दालो(चना, मोऽ इत्यादि)में अकुर फूट आते है पर धान(गेहूं, ज्वार) में ऐसे अंकुर नही फूटते। किसी की टहनी उग आती है तो किसी के बीज उगते है। कभी-२ सूखे लछो और पक्के मकानो में भी कोपलें निकल आती हैं। घास काटने पर भी वालो की तरह वढती ही रहती है । सूखे लछ भी निमित्त पाकर अग्निकाय जीवो का गरीर धारण कर लेते है। दूध दही के सहयोग से दही रूप में परिणत हो जाता है पर पानी दही के रूप में नही जमता । प्रश्न उठता है कि अग्नि को प्रधान माने या सूखे लट्ठ को, दही को प्रधान माने या दूध को? यानी प्रकृति का रहस्य अपार है। पानी उबालने पर भी पानी ही रहता है, भाप बनने पर भी पानी ही रहता है, वर्फ जमने पर भी पानी ही रहता है । अन्न को महीनों राख में लपेटकर रखिये, हवाशून्य वर्तन में रखिये, धूप में सुखाइये उसमें शीघ्रकोई परिवर्तन नहीं होता। अकुरित होने के लिये भी उन्हें मिटी, पानी और हवा तीनों का सहयोग आवश्यक होता है। बहुत सम्भव है मिट्टी, पानी और हवा में रहे सूक्ष्म जीव इस दाने को अपना खाद्य वना उत्पन्न हो जाते हो, या ये जीव इतने शक्तिशाली हो कि हमारे व्यवहार मे लेने पर भी वच निकलते हो। फिर भी यह मान लें कि गेहूं भी गेहूँ के पौधे के समान ही जीव है, भले ही उगाने पर उगने के सिवाय और कोई भी गति उसमें नजर न आती हो । अत अपने लिए ऐसे जीवों का उपयोग न लेना ही उचित है। शरीर रखने के लिए जैसे आम, सतरे, केले, अगूर, तरबूज, खरबूजा, पपीता इत्यादि खाकर ही रहना चाहिए, जिनके उगनेवाले वीज आसानी से बचाये जा सकते हैं, या दही, दूध, मेवे इत्यादि का ही उपयोग