SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 133
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आप फरमाते है---"यह पूजा इत्यादि का व्यवहार परमात्मा के लिए नही है अपितु यह तो हमारी आत्मा की पूजा है। अपनी आत्मा को निर्मल बनाने के लिए, अपनी ही भलाई के लिए ये सर्व व्यवहार हम अपनाते है। ‘परमात्मा की पूजा--यह तो एक बहाना मात्र है।" आप अकर्ता सेवाथी हुवे रे, सेवक पूरण सिद्धि । निज धन न दिए पण आश्रित लह रे, अक्षय अक्षर ऋद्धि ॥पूजना०॥ पूजना तो कोजे रे बारमा जिनतणो रे-- चाहे आर कुछ भी न करे पर आपकी सेवा में सेवक अपनी इच्छित सम्पूर्ण सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। आप अपनी सपदा मे से कुछ भी नहीं देते यह विल्कुल यथार्थ है पर जो अपने मन से ही आपकी शरण ग्रहण कर लेता है वह निश्चय मोक्ष-सुख प्राप्त कर लेता है। इसलिए हे भवि प्राणियो | दिल खोल कर परमात्मा की पूजा करो। जिनवर पूजा रे ते निन पूजनारे, प्रगटे अनन्य शक्ति । परमानद विलासी अनुभवे रे, देवचन्द्र पद व्यक्ति ॥पूजना० ॥ • पूजना तो कोजे रे बारमा जिन तणी रे--- हे ससारी प्रागियो । जिनराज भगवान की जो हम पूजा करते हैं इससे उनको कोई लाभ नही पहुँचता कारण वे तो पूर्णता को पहले ही प्राप्त कर चुके है। अब इस व्यवहार से जो कुछ लाभ मिलने वाला है वह हमे ही मिलेगा। इसलिए भगवान की पूजा तो एक बहाना मात्र है । असल में यह पूजा तो हमारी है यानी हम ही लाभान्वित होते है। इससे सर्व प्रकार के गुण हममे प्रगट हो जाते है । अनुभव के आधार से यह कहा जा सकता है कि एकाग्रता से पूजन करने वाले व्यक्ति, 'परमानन्द' को-परमात्मा के समान पद को प्राप्त कर लेते है। धन्य है पडितजी आपके वाणी-विलास को। मन तृप्त ही नहीं होता। वस्तुत. महाराज के एक-एक पद में रस-सागर लहरा रहा है। पार्श्वनाथ स्वामी. के स्ववन में आप फरमाते हैं
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy