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________________ वृक्ष की सम्पूर्ण सत्ता पूर्णरूप से विद्यमान है, पर बिना थल और जल के सयोग के वह अपने आप को वृक्ष-रूप में पल्लवित नही कर सकता । उसी प्रकार चाहे आत्मा में अनन्त गुण विद्यमान है पर विना प्रभु की उपासना और भक्ति के योग के, वे विकास को प्राप्त नही हो सकते । इसलिए हे परमात्मन् ' एक मात्र आपके अवलम्ब ही से कार्य सिद्धि सभव है । संरक्षण विण नाथ छो, द्रव्य बिना धनवन्त हो । जिनजी० ॥ कर्ता पद किरिया बिना, सन्त अजय अनन्त हो ॥ जिनजो० ॥ श्री सुवास आनन्द में- हे परमात्मन् । हम जानते है कि आप हमारी रक्षा नही करते फिर भी हम आपको अपना नाथ मानते है । आपके पास चाहे द्रव्य (धन) न हो फिर भी आप आत्मलक्ष्मी के महान् धणी है। आप चाहे कुछ भी न करे पर आपके अवलम्ब से जो हमारा हित हो जाता है, हम तो ऐसा ही मानते है कि आप ही हमारे इस उपकार के कर्ता है । हे स्वामी । आप अक्षय परम पद को प्राप्त करने वाले महान् योद्धा है । अहा ! आप तो वडे आनन्द मे विराज रहे है । श्री सुविधिनाथ स्वामी के स्तवन के प्रत्येक चरण मे पडितजी ने ऐसा अनूठा रसभरा है कि उसका पान करते-करते तृप्ति ही नही होती - मोहादिकनी घूमि, अनादिनी उतरे हो लाल || अनादिनी० ॥ अमल अखण्ड अलिप्त, स्वभावज साभरे हो लाल ॥ स्वभावज० ॥ तत्व रमण शुचि ध्यान, भगी जे आदरे हो लाल ॥ भणी० ॥ ते समता रस धाम, स्वामी मुद्रा वरे हो लाल ॥ स्वामी० ॥ दीठो सुविधि जिणन्द- हे देवाधिदेव | जो आपकी समता रस से परिपूर्ण मुद्रा को यथोचित अपना लेता है, पहचान लेता है, अनादि काल से पीछे पडा उसका 'मोह' का नशा हवा हो जाता है एव उसके स्वभाव मे शुद्धता व्याप्त हो जाती है । उसको सही तत्व और ध्यान आदि का बोध हो जाता है । अन्ततोगत्वा वह आप जैसे ही परमपद को प्राप्त कर लेता है । आगे चल कर पडित जी लिखते हैं- २०४
SR No.010055
Book TitlePooja ka Uttam Adarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPanmal Kothari
PublisherSumermal Kothari
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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