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________________ तृतीय अध्याय ॥ १०१ हार आदि में लज्जा (शर्म) हो जाती है, सन्तति (पुत्र पुत्री) के उत्पन्न करने की योग्यता जान पड़ती है और खाभाविक नियम के अनुसार जिस काम के करने के लिये वह मानी गई है उस कार्यका उसको ज्ञान होगया है. यह बात उस के चेहरे से मालस होती है, इत्यादि फेरफार ऋतुस्राव के समय स्त्री के शरीरमें होता है । रजोदर्शन होनेका समय 1रजोदर्शन के शीघ्र अथवा विलम्ब से आने का मुख्य आधार हवा और संगति है, देखो । इंग्लेंड, जर्मनी, फ्रांस, रशिया, यूरुप और एशिया खण्ड के शीत देशोंकी वाला ओंके यह ऋतु धर्म प्रायः १९ वे अथवा २० वें वर्षमें होता है, क्योंकि वहां की ठंढी हवा उन की मनोवृत्ति और वैषयिक विकार की वृत्तिको उसी ढंग पर रक्खे हुए है, परन्तु अपने इस गर्म देशमें गर्म खासियत के कारण तथा दूसरे भी कई कारणों से प्रायः १२ वा १४ वर्ष की ही अवस्था में देखा जाता है और १५ वा ५० वर्ष की अवस्था में इस का होना बन्द हो जाता है, यद्यपि यह दूसरी बात है कि- किन्हीं खियों को एक वा दो वर्ष आगे पीछे भी आवे तथा एक वा दो वर्ष आगे पीछे वह बन्द होवें परन्तु इस का साधारण नियमित समय वही है जैसा कि ऊपर लिख चुके हैं. इसके आगे पीछे होने के कुछ साधारण हेतु भी देखे वा अनुमान किये जा सकते हैं, जैसे देखो ! परिश्रम करने वाली और उद्योगिनी स्त्रियों की अपेक्षा आलस्य में पड़ी रहने वाली, नाटक आदि तथा नवीन २ रसीली कथाओं की वांचने वाली, प्रेम की बातें करने वाली, इश्कवान स्त्रियों का संग करने वाली, विलम्ब से तथा विना नियम के असमय पर सोने का अभ्यास रखने वाली और मसालेदार तथा उत्तम सरस खुराक खानेवाली आदि कई एक स्त्रियों का गर्भाशय शीघ्र ही सतेज होकर उन के रजोदर्शन शीघ्र आया करता है, इसके विरुद्ध ग्रामीण, मेहनत मजूरी करने वाली और सादा (साधारण) खुराक खाने वाली आदि साधारण वर्ग की स्त्रियों को पूर्व कही हुई स्त्रियोंकी अपेक्षा ऋतु विलम्बसे आता है यह भी मरण रखना चाहिये कि जिस कदर ऋतु धर्म विलम्बसे होगा उसी कंदर स्त्रियों के शरीर का बन्धेज विशेष दृढ रहेगा और उसको बुढ़ापा भी विलम्बसे आवेगा केवल यही कारण है कि ग्रामों की स्त्रियां शहरों की स्त्रियों की अपेक्षा विशेष मजबूत और कदावर (ऊंचे कद की) होती हैं। रक्तस्राव का साधारण समय ॥ स्त्रियों के यह रक्तस्राव साधारण रीतिसे प्रतिमास ३० वें दिन अथवा फिन्हीं के २८ वें दिन भी होता है, परन्तु किन्हीं स्त्रियों के नियमित रीतिसे तीन अष्टाह ( अठवाडे )
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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