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________________ ५८. . जैनसम्प्रदायशिक्षा ६-जातीफलादि चूर्ण-जायफल, बायविडंग, चित्रक, तगर, तिल, तालीसपत्र, चन्दन, सोंठ, लौंग, छोटी इलायची के वीज, भीमसेनी कपूर, हरड़, आमला, काली मिर्च, पीपल और वंशलोचन, ये प्रत्येक तीन २ तोले, चतुर्जा तक की चारों औषधियों के तीन तोले तथा भांग सात पल, इन सब का चूर्ण करके सब चूर्ण के समान मिश्री मिलानी चाहिये, इस के सेवन से क्षय, खांसी, श्वास, संग्रहणी, अरुचि, जुखाम और मन्दामि, ये सब रोग शीघ्र ही नष्ट होते हैं। चन न होने के लक्षण—जिस को उत्तम प्रकार से विरेचन न हुमा हो उस की नाभि में पीडा युक्त कठोरता, कोख में दर्द, मल और अधोवायु का रुकना, देह में खुजली का चलना, चकत्तों का उठना, देह का गौरव, दाह, अरुचि, अफरा और वमन का होना, इत्यादि लक्षण होते हैं, ऐसी दशा में पाचन औषधि देकर नेहन करना चाहिये, जव मल पक जावे और स्निग्ध हो जावे तव पुनः जुलाब देना चाहिये, ऐसा करने से जुलाव न होने के उपद्रव मिट कर तथा अग्नि प्रदीप्त हो कर शरीर हलका हो जाता है। अधिक विरेचन होने के उपद्रव-अधिक विरेचन होने से मूर्छा, गुदभ्रंश (काल का निकलना), पेट में दर्द, माम का अधिक गिरना तथा दस में रुधिर और वर्षी आदि का निकलना, इत्यादि उपद्रव होते हैं, ऐसी दशा में रोगी के शरीर पर शीघ्र ही शीतल जल छिड़कना चाहिये, चावलों के धोवन में शहद डाल कर पिलाना चाहिये, इलका सा चमन कराना चाहिये, आमकी छालके कल्क को दही और औं की कांनी में पीस कर नाभि पर लेप करने से दखो का घोर उपद्रव भी मिट जाता है, जौनों का सौवीर, शालि चावल, साठी चावल, बकरी का दूध, शीतल पदार्थ तथा प्राही पदार्थ, इत्यादि पदार्थ अधिक दस्तों के होने को बंद कर देते है। उत्तम विरेचन होने के लक्षण-शरीर का हलका पन, मन में प्रसभता तथा अधोवायु का अनुकूल चलना, ये सब उत्तम विरेचन के लक्षण हैं। विरेचन के गुण-इन्द्रियों में बल का होना, बुद्धि में खच्छता, जठराग्नि का दीपन तथा रसादि धातु और अवस्था का स्थिर होना, ये सब विरेचन के गुण हैं । विरेचन में पथ्यापथ्य-अत्यत हवा में बैठना, शीतल जल का स्पर्श, वेल की मालिश, अजीर्ण कारी भोजन, व्यायामादि परिश्रम और मैथुन, ये सब विरेचन में अपथ्य हैं तथा शालि और साठी चावल, मूग आदि का यवागू, ये सव पदार्थ विरेचन में पथ्य अर्थात् हितकारक है। . तीसरा कर्म अनुवासन है-यह पति (गुदा में पिचकारी लगाने) का प्रथम भेद है, तात्पर्य यह है कि तैल आदि लेहों से जो पिचकारी लगाते हैं उस को अनुवासन बस्ति कहते हैं, इसी का एक भेद मात्रा वस्ति है, मात्रा वस्ति में घृत आदि की मात्रा आठ तोले की अथवा चार तोले की ली जाती है। अनुवासन चस्ति के अधिकारी-क्ष देह वाला, तीक्ष्णाग्नि वाला तथा केवल वातरोग वाला, ये सब इस पति के अधिकारी हैं। अनुवासन वस्ति के अनधिकारी-कुष्ठरोगी, प्रमेहरोगी, अत्यन्त स्थूल शरीर वाला तथा उदररोगी, ये सब इस वस्ति के अनधिकारी है, इन के सिवाय अजीर्णरोगी, उन्माद वाला, तृषा से व्याकुल, शोथरोगी, मूर्छित, अरुचि युक्त, भयभीत, श्वासरोगी तथा कास और क्षयरोग से युक्त, इन को न तो यह (अनुवासन) पति देनी चाहिये और न निरूहण वस्ति (जिस का वर्णन आग किया जावेगा) देनी चाहिये। वस्ति का विधान-वस्ति देने को नेत्र (नली) सुवर्ण आदि धातु की, पुन की, पास की, नरसल की, हाथीदाँत की, सींग के अप्रभाग की, अथवा स्फटिक मादि मणियों की बनाना
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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