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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १५५ में जाकर उस में स्थित रस (आम) को दूषित कर जठर (पेट) की गर्मी (अमि) को बाहर निकालता है उस से वातज्वर उत्पन्न होता है। लक्षणे-जमाई (बंगासी) का आना, यह वातज्वर का मुख्य चिह्न है, इस के सिवाय ज्वर के वेग का न्यूनाधिक (कम ज्यादा) होना, गला ओष्ठ (होठ) और मुख का सूखना, निद्रा का नाश, छीक का बन्द होना, शरीर में रूक्षता (रूखापन), दस्त की कबजी का होना, सब शरीर में पीड़ा का होना, विशेष कर मस्तक और हृदय में बहुत पीड़ा का होना, मुख की विरसता, शूल और अफरा, इत्यादि दूसरे भी चिह्न मालूम पड़ते है, यह वातज्वर प्रायः वायुप्रकृतिवाले पुरुष के तथा वायु के प्रकोप की ऋतु (वर्षा' अतु) में उत्पन्न होता है। चिकित्सा-१-यद्यपि सब प्रकार के ज्वर में परम हितकारक होने से लद्धन सर्वोपरि (सब से ऊपर अर्थात् सब से उत्तम) चिकित्सा (इलाम) है तथापि दोष, प्रकृति, देश, काल और अवस्था के अनुसार शरीर की स्थिति (अवस्था) का विचार कर लड्डन करना चाहिये, अर्थात् प्रवल वातज्वर में शक्तिमान् (ताकतवर) पुरुष को अपनी शक्ति का विचार कर आवश्यकता के अनुसार एक से छः लंघन तक करना चाहिये, यह भी जान लेना चाहिये कि लंघन के दो भेद हैं-निराहार और अल्पाहार, इन में से बिलकुल ही नहीं खाना, इस को निराहार कहते है, तथा एकाध वख्त थोड़ी और हलकी खुराक का खाना जैसे-दलिया, भात तथा अच्छे प्रकार से सिजाई हुई मूंग और अरहर (तूर), की दाल इत्यादि, इस को अल्पाहार कहते है, साधारण वात ज्वर में एकाध. टंक (बख्त) निराहार लंघन करके पीछे प्रकृति तथा दोष के अनुकूल ज्वर के दिनों की मर्यादा तक (जिस का वर्णन आगे किया जावेगा) ऊपर लिखे अनुसार हलकी तथा थोड़ी खुराक खानी चाहिये, क्योंकि-ज्वर का यही उत्तम पथ्य है, यदि इस का सेवन भली भांति से किया जावे तो औषधि के लेने की भी आवश्यकता नहीं रहती है। १-चौपाई-बडो वेग कम्प तन होई ॥ ओठ कण्ठ मुख सूखत सोई॥१॥ निदा अरु छिका को नासू॥ रूखो अफवज हो तासू ॥२॥ शिर हृद सव अॅग पीड़ा होवै ॥ बहुत उबासी मुख रस खोचे ॥३॥ गाढी विष्ठा मूत्र जु लाला ॥ उष्ण वस्तु चाहै चित चाला ॥४॥ नेत्र जु लाल रङ्ग पुनि होई ॥ उदर आफरा पीडा सोई ॥५॥ बातज्वरी के एते लक्षण ॥ इन पर ध्यानहि घरो विचक्षण ॥ ६॥ २-क्योंकि लघन करने से अग्नि (माहार के न पहुंचने से) कोठे में स्थित दोषों को पकाती है और जब दोष पक जाते हैं तव उन की प्रवलता जाती रहती है, परन्तु जब लंघन नहीं किया जाता है अर्थात् आहार को पेट में पहुंचाया जाता है तव अग्नि उसी माहार को ही पकाती है किन्तु दोषों को नहीं पकाती है।
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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