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________________ चतुर्थ अध्याय ॥ १६३ नियम आदि का पालन ही किया, उस मनुष्य ने जन्म लेकर पशुओं के समान ही पृथिवी को भार युक्त किया और अपनी मोता के यौवनरूपी वन को काटने के लिये कुठार (कुल्हाड़ा) कहलाने के सिवाय और कुछ भी नहीं किया | 'स्वभावजन्य अर्थात् कुदरती नियम से होने वाली हवा की शुद्धि- ॥ 27 प्रिय पाठक गण | पांचों समवायों के योग से प्रथम तो बिगड़ती हुई हवा को बन्द करने में (रोकने में ) मनुष्यों का उद्यम है, उसी प्रकार से काल आदि चारों समवाय के मिलने से भी हवा को साफ करने का पूरा साधन उपस्थित है, यदि वह न होता तो सृष्टि में उत्पत्ति और स्थिति भी कदापि नही हो सकती । जिस प्रकार से ये साधन इन ही समवायों से विगड़ कर प्राणियों का प्रलय करते हैंउसी प्रकार से ये ही पांचों समवाय परस्पर मिलने से बिगड़ी हुई हवा को साफ भी करते हैं, किन्हीं लोगों ने इन्हीं समवायों के सम्बंध को ईश्वर मान लिया है, अस्तु, हवा में चलनखभाव रूप धर्म है उसी से वह विगड़ी हुई हवा को अपने झपटे से खीच कर ले जाती है अर्थात् उस के झपटे से दुष्ट परमाणु छिन्न भिन्न हो जाते हैं और ताज़ी हवा के न मिलने से जितनी हानि पहुँचने को थी उतनी हानि नहीं पहुँचती है, क्योंकि – ऊपर लिखी हुई वह हवा एक दूसरे के संग इस प्रकार से मिल जाती हे जैसे थोड़ा सा दूष पानी में मिलानेसे बिलकुल एकमेक (तत्स्वरूप ) हो जाता है तथा जिस प्रकार से पवन का वेग होने पर चूल्हे का धुँआ छिन्न भिन्न होकर थोड़ी देर पीछे नहीं दीखता है उसी प्रकार श्वास आदि के लेने से बिगड़ी हुई सब हवा भी उसी झपटे से छिन्न भिन्न होकर अधिक परिमाणवाली खच्छ हवा में मिलकर पतली हो जाती है इसी लिये वह कम हानि पहुँचाती है। हवा किसी समय अधिक और किसी समय कम चलती है, क्योंकि - हवा में वैक्रिये शरीर के रचने का स्वभाव है, जिस समय मन को प्रसन्न करने वाली ताज़ी हवा चलती १- शास्त्रों में लिखा है कि “प्रसूतान्ते यौवन गतम् " अर्थात स्त्री के सन्तान होने के पीछे उसका यौवन चला जाता है ॥ २- इस का उदाहरण यह है कि-जैसे देखो । कृष्णमहाराज एक थे परन्तु सय रानियों के महलों में नारदजीने उनको देखाथा, इस का कारण यही था कि वे वैक्रिय शरीर की रचना कर लेते थे, यदि किमी को इस विषय में शंका हो तो वैक्रिय रचना के इस दृष्टान्त से शका निवृत्त हो सकती है कि जैसे पुरुपचिन्ह पडी दशा में केवल दो अगुल का होता है परन्तु देखो । वही तेज़ी की दशा में कितना बढ़ जाता है, इसी प्रकार से वायु भी वैक्रिय शरीर की रचना करता है, अथवा दूसरा दृष्टान्त यह भी है कि-जैसे किरडा जानवर अनेक प्रकार के रंग बदलता है उसी प्रकार की वैक्रिय शरीर की भी शक्ति जाननी चाहिये ॥
SR No.010052
Book TitleJain Sampradaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages316
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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