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(६६) होता है कि परमात्मा हमारे बीच में अपने को नही उलझाना है। हम जैसे म्वयं अग्नि उठाते व स्वयं जलने है, स्वयं नशा पीते व स्वय बेहोश हो जाते है, वैसे ही संसारी जीव स्वयं पाप पुण्य बांधते व स्वयं उनका फल पाते रहते है । परमान्मा न कर्ता है,न भोगादि दण्ड देना है। *
२६. अजीवतत्व-पांचद्रव्य "जिस में चेतना नहीं है, वह अजीव है। अजीवनत्व में पाँच द्रव्य गर्मित है-१ पुद्गल २ धर्मास्तिकाय 3. अधर्मास्तिकाय ४. आकाश और ५ काल । इन में केवल पुद्गल ही मृर्तीक है। शेष चार अमूर्तीक हैं।
* स्वयंसृजति चेत्प्रजाः किमितिदैत्यविध्वंसन सुदुष्टजन निग्रहार्थमिति चेदसृष्टिवरम् । कृतात्म करणीयकस्य जगतां कृतिनिष्फला स्वमावइति चेन्मृषा सहि सुदुष्ट एवाऽप्यते ॥ ३३ ॥
(पात्रकेसरि स्तोत्र) भावार्थ-यदिपरमात्मा स्वयं प्रजाको पैदा करता है नो फिर असुरों का विध्वंस क्यो करता है ? यदि कहो कि दुष्टों के निग्रह व सुष्टों के पालन के लिये तो यही ठीक था कि वह उनकी रचना ही नहीं करता। जो कृतकृत्य होते हैं उनसे जगत का बनना यह बेमतलब काम है। कोई वुद्धिमान प्रयोजन बिना कोई काम नहीं करता। यदि कहो कि उसका स्वभाव है यह भी मिथ्या ही है क्योकि सर्जन, पालन, नाश, विना रागादि दोप के नहीं हो सकताः सो परमात्मा में संभव नहीं हैं।