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________________ ( २३६) सातवीं पृथ्वीके नीचे एक राजस्थान और है। इसको प्राग्भारा कहते हैं । फिर लोक का अन्त है। एक पृथ्वी ऊर्ध्व लोक के अन्त में है। इस लोक को तीन तरह की पवन बेढ़े हुये है। पहिले घनोदधि पवन गाय के मूत्र समान वर्णवाली है। उसके ऊपर घनवात मुंग अन्न वर्णवाली है, फिर उसके ऊपर तनुवात है, उसका वर्ण अव्यक्त है। इसके ऊपर मात्र आकाश है। यह तीन तरह की पवन पाठों पृथ्वियों के भी हर एक के नीचे है। इनकी मोटाई लोक के नीचे तथा ऊपर एक राजू तक की ऊँचाई तक, नीचे व बग़ल में हर एक पवन २०००० बीस हज़ार योजन मोटी है। फिर एक दम घट कर सातवीं पृथ्वीके पास क्रमसे सात, पाँच तथा चार योजन क्रमसे मोटी है। फिर क्रम से घटते हुए पहली पृथ्वी के पास पाँच, चार, तीन योजन क्रमसे मुटाई है । यहाँ तक सात राजू की ऊँचाई हो गई, फिर क्रमसे बढ़ते हुये ३॥ राजू ऊँचा जाकर पाँचवें स्वर्ग के पास सात, पाँच, चार योजन मुटाई, फिर घटते हुये आठवीं पृथ्वी के पास पाँच, चार, तीन योजन की मुटाई है। लोकके ऊपर दो कोस धनोदधि, १ कोस घनवात तथा ४२५ धनुष कम १ कोस अर्थात् १५७५ धनुष तनुवात मोटी है। यह गणना प्रमाणांगुल से है, जो साधारण उत्सेधांगुल से ५०० पाँच सौ गुणा है । आठ आड़े जौ का एक अङ्गुल [ उत्सेध अङ्गुल], २४ अङ्गुल का एक हाथ, ४ हाथ का एक धनुष, २००० धनुष का एक कोस, ४ कोस का एक योजन छोटा । इससे ५०० गुना बड़ा योजन होता है।
SR No.010045
Book TitleJain Dharm Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitalprasad
PublisherParishad Publishing House Bijnaur
Publication Year1929
Total Pages279
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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