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मन्दिरों में जाना व उनके नास्तिकतापूर्ण ग्रन्थोंका पढ़ना या उनका उपदेश सुनना और उनकी अश्लील नंगी मूर्तियों का देखना महापाप है, इत्यादि।
(२) श्रीशंकराचार्य व श्री रामानुजादिके समयमै तथा महमूदग़ज़नवी आदि के आक्रमण काल में धर्मविरोधियों की द्वेषाग्नि में बहुत कुछ जैनसाहित्य के नष्ट हो जानेसे जैनियों का अपने साहित्य की रक्षार्थ जैनग्रन्थों को तहखानों में छिपा कर रखना और उन्हें धूप दिखाने तक में धर्म-शत्रुओं डाग उनके नष्ट होजाने का भय मानते रहने का संस्कार आज तक भी न मिटाना। वह द्वेषाग्नि यदि सर्वथा नहीं तो बहुत कुछ वुम जाने और इस अंग्रेजी राज्यमें मुद्रालयों द्वारा साहित्य प्रचार के लिये सर्वप्रकार का सुभीता होजाने तथा समयानु कूनता प्राप्त होजाने पर भी इस कहावत के अनुसार कि "दूध का जला छाछ को भी फूंक फूक कर पीता है" जैनियों का बहु भाग अव भी अपने पूर्व समय के भय को हृदयसे दूर नहीं करता है, वरन् अज्ञानवश अपने धर्म ग्रन्थोंकी वास्तविक निश्चयविनय को केवल दिखावे की उपचारविनय को प्रास बनाकर अपने वचेखुचे बहुमूल्य ग्रन्थभण्डारों को दीमकोंका भक्ष्य बना रहा है। इसमें जैनों की कुछ तो अदूरदर्शिता, कुछ प्रमाद और कुछ वर्तमान समय की लोकस्थिति की अनभिशता, ये तीन मुख्य कारण हैं। इसी से जैन साहित्य का बहु भाग आजतक भी अप्रकाशित पड़ा रहने से और जैनधर्म का रहस्य जानने की अभिलाषा रखनेवालों तक के हाथों में जैन दार्शनिक ग्रन्थ पहुंचाए जाने का कोई सुभीता न होने से जैन साहित्य का यथेष्ट प्रचार नहीं हो पाता । जैनों के यद्यपि जैन