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भांति इकट्ठे रहकर जीने का उपदेश देने वाले महापुरुष कुलकर कहलाते है । प्रजा के जीवन-यापन का उपाय जानने से ये मनु भी कहलाते है। प्रत्येक अवसर्पिणी के तीसरे और उत्सर्पिणी के दूसरे काल मे चोदह कुलकर होते है । ये सभी क्षायिक सम्यग्दृष्टी होते है । इसमे किसी को जातिस्मरण और किसी को अवधिज्ञान होता है ।
कुशील - कामसेवन मे आसक्त होना कुशील है । अथवा शील का अर्थ स्वभाव है अत अपने आत्म-स्वभाव से विचलित होना कुशील है ।
कुशील साधु- यह निर्ग्रन्थ साधु का एक भेद है। कुशील नामक निर्ग्रथ साधु दो प्रकार के हे- कषाय कुशील और प्रतिसेवना कुशील । जिन्होने अन्य सभी कपायो को जीत लिया है जो केवल सज्वलन कषाय के अधीन है ऐसे निर्ग्रन्थ साधु कषाय-कुशील कहलाते है। जो मूलगुण और उत्तरगुणो से परिपूर्ण हे लेकिन कभी उत्तरगुणो की विराधना जिनसे हो जाती है ऐसे निर्ग्रन्थ साधु प्रतिसेवना-कुशील कहलाते है।
कृत-स्वय अपने द्वारा किया गया कार्य कृत कहलाता है।
कृतिकर्म - 1 अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य ओर बहुश्रुतवान् साधु की वदना करते समय जो विनय आदि क्रिया की जाती है उसे कृतिकर्म कहते है । 2 जिसमे अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य और साधु की पूजा विधि का वर्णन है वह कृतिकर्म नाम का अङ्गवाह्य है ।
कृष्ण-लेश्या - कृष्ण - लेश्या से युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय बधु ओर एकमात्र पुत्र को भी मारने की इच्छा करता है। दुराग्रह, तीव्र वेर, अतिक्रोध, निर्दयता, क्लेश, सताप, हिसा, असतोष आदि
जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 75