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________________ यथासंभव उसे दूर करना उपगूहन कहलाता है । यह सम्यग्दृष्टि का एक गुण है । उपघात - नामकर्म - जिस कर्म के उदय से शरीर के अङ्ग - उपाङ्ग स्वय उसी जीव के लिये कष्टप्रद या घातक हो जाते है वह उपघात - नामकर्म हे । जेसे- विशाल तोद वाला पेट या बारहसिंगा के बडे-बडे सींग । उपचरित -असद्भूत व्यवहार - सश्लेष रहित वस्तुओ के सवध को वताने वाला उपचरित-असद्भूत व्यवहार नय हे। यह वस्तु को जानने का एक ऐसा दृष्टिकोण हे जिसमे सश्लेष से रहित सर्वथा भिन्न वस्तुओ के वीच स्वामित्व आदि की अपेक्षा सबध का कथन किया जाता है जेसे- 'यह देवदत्त का धन हे' या 'यह मेरा मकान है' | उपचरित- सद्भूत-व्यवहार:-सोपाधि गुण ओर गुणी में भेद का कथन करना उपचरित सद्भूत व्यवहार नय है । यह वस्तु को जानने का एक ऐसा दृष्टिकोण है जिसमे कर्मोपाधि से युक्त द्रव्य के आश्रित रहने वाले गुणों को उस द्रव्य अर्थात् गुणी से प्रथक् कथन किया जाता हे जेसे- जीव के मतिज्ञान आदि गुण हे - ऐसा कहना । उपचार- विनय- आचार्य आदि पूज्य पुरुषो के आने पर स्वयं उठकर खडे हो जाना, हाथ जोडना ओर उनके पीछे चलना यह उपचार - विनय हे । उपचार विनय तीन प्रकार की हे कायिक- विनय, वाचिक - विनय और मानसिक - विनय । उपदेश- सम्यक्त्व - तीर्थकर आदि महापुरुषों के जीवन चरित्र को सुनकर जो सम्यग्दर्शन होता हे उसे उपदेश- सम्यक्त्व कहते हे जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 53
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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