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निर्जरा है। अविपाक निर्जरा सम्यग्दृष्टि व्रती के ही होती है। अविभाग-प्रतिच्छेद-शक्ति अशको अविभाग-प्रतिच्छेद कहते है। यह जड व चेतन सभी द्रव्यो मे देखे जाते हैं। जैसे-सबसे कम अनुभाग से युक्त परमाणु के किसी एक गुण को बुद्धि के द्वारा ग्रहण करके तब तक छेद दिया जाए जब तक कि उससे आगे और विभाग न हो सके, इस विभाग-रहित अश को अविभागी-प्रतिच्छेद कहते है। अविरत-सम्यग्दृष्टि-जो व्रत आदि से रहित है किन्तु सच्चे देव-शास्त्र-गुरु पर श्रद्धा रखता है वह चतुर्थ गुणस्थानवी जीव अविरत-सम्यग्दृष्टि है। अविरति-व्रतो को धारण न करना अविरत है । या अव्रत रूप विकारी परिणाम का नाम अविरति है। पाच स्थावर और त्रस इन छह प्रकार के जीवो की दया न करने से और पाच इन्द्रिय व मन के विषयो से विरक्त न होने से अविरति बारह प्रकार की है। अशरणानुप्रेक्षा-मत्र, तत्र, औषध आदि कोई भी मरण के समय प्राणी की रक्षा नहीं कर सकते, अमर कहे जाने वाले स्वर्ग के देव भी आयु समाप्त होने पर मरण को प्राप्त होते हैं। इस ससार मे जन्म और मरण के दुखो से यदि कोई वचा सकता है तो वह एक मात्र वीतराग-धर्म है, धर्म की शरण ही श्रेष्ठ है, शेष कोई शरण नहीं है, इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना अशरण-अनुप्रेक्षा हे। अशुचित्व-अनुप्रेक्षा-यह शरीर अत्यन्त अपवित्र है, स्नान और अन्य सुगंधित पदार्थो से भी इसकी अशुचिता अर्थात् मलिनता को दूर कर पाना सभव नहीं है किन्तु यदि जीव चाहे तो रत्नत्रय की भावना के
30 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश