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हास्य- जिस कर्म के उदय से जीव के हास्य (हसी) रूप भाव उत्पन्न होता है उसे हास्य कहते है ।
हिंसा - प्रमाद के वशीभूत होकर जीव के प्राणो का वियोग करना या उसे पीडा पहुचाना हिसा है । सकल्पी, आरम्भी, विरोधी और उद्योगी - ऐसी चार प्रकार की हिसा है। द्रव्य -हिसा और भाव - हिसा, इन दो रूपो में हिसा होती है। मारना या पीडा पहुचाना द्रव्य - हिसा है तथा मारने या पीडा पहुचाने का विचार करना भाव - हिसा है। हिंसादान - हिसा के कारणभूत अस्त्र-शस्त्र, अग्नि आदि उपकरणो को देना हिसादान नामक अनर्थदण्ड है ।
हिंसानन्दी - रौद्रध्यान - तीव्र कषाय के वशीभूत होकर जीवसमूह को स्वय मारने मे या दूसरे के द्वारा मारे जाने मे हर्षित होना और सदा हिसा के कार्यों में मन लगाए रखना हिसानन्दी नामक रोद्रध्यान है ।
हुण्डक - संस्थान - विषम या बेडौल आकृति को हुड कहते है । जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर बेडौल होता है उसे हुण्डक शरीर-सस्थान नामकर्म कहते है ।
हुण्डावसर्पिणी- असख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी काल बीत जाने पर एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है। इसमे कई बाते असामान्य होती है । जैसे - तृतीय काल मे तीर्थकर व चक्रवर्ती का उत्पन्न होना, चक्रवर्ती का मान भग होना, तीर्थकर पर उपसर्ग होना, अयोध्या के सिवाय अन्यत्र भी तीर्थंकरो का जन्म होना, सम्मेदशिखर के अलावा जैनदर्शन पारिभाषिक कोश / 269