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स्थिति-1 किसी क्षेत्र में स्थित पदार्थ की काल मर्यादा निश्चित करना स्थिति है। 2 कर्म रूप से परिणत हुए पुद्गल स्कधो का कर्मपने को न छोडते हुए जीव के साथ रहना स्थिति हे। 3 आयु कर्म के उदय से जीव का उस भव विशेष मे शरीर के साथ रहना स्थिति कहलाती है। स्थितिकरण-धर्म से विचलित होते हुए जीवो को या स्वय को धर्म मे पुन दृढ करना स्थितिकरण अङ्ग है। यह सम्यग्दृष्टि जीव का एक गुण है। स्थिति-वध-अपने स्वभाव को नहीं छोडते हुए जितने काल तक कर्म आत्मा के साथ बधे रहते है उसे स्थिति-बध कहते है। मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 70 कोडा-कोडी सागर तथा जघन्य स्थिति अतर्मुहूर्त है। ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अतराय की उत्कृष्ट स्थिति 50 कोडा-कोडी सागर तथा जघन्य स्थिति अतर्मुहूर्त (सिर्फ वेदनीय की जघन्य स्थिति 12 मुहूत) है। नाम व गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 20 कोडा-कोडी सागर और जघन्य स्थिति 8 मुहूर्त है। आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति 43 सागर एव जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है। स्थिति-भोजन-दीवाल आदि का सहारा न लेकर स्वय स्थिर खडे रहकर अपनी अजली मे आहार ग्रहण करना स्थिति-भोजन कहलाता हे । यह साधु का एक मूलगुण है। स्थिर-नामकर्म-जिस कर्म के उदय से उपवास आदि तप करने पर भी शरीर में वात, पित्त व कफ की स्थिरता बनी रहती हे ओर शरीर
जेनदर्शन पारिभापिक कोश / 265