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को नियंत्रित करना इन्द्रिय-सयम है। सयमोपकरण-साधु के योग्य सयम का पालन करने में सहायक पिच्छिका को सयमापकरण कहते है। सयोजना-दोष-यदि साधु ठडा भोजन गर्म जल से मिला कर ले ओर ठडा जल गर्म भोजन से मिलाकर ग्रहण करें तो यह सयोजना नाम का दोप है।
सरम्भ-हिसा आदि कार्य मे प्रयलशील होना सरम्भ है। सवर-आस्रव का निरोध करना सवर कहलाता है। अथवा जिससे कर्म रुके वह कर्मों का रुकना सवर है। यह दो प्रकार का हे-भाव सवर ओर द्रव्य सवर । आत्मा के जो सम्यग्दर्शन व व्रत सयम आदि रूप परिणाम कर्म के आगमन को रोकने में कारण है उसे भाव-सवर कहते है तथा कर्मों का रुकना द्रव्य-सवर है। सवरानुप्रेक्षा-जिस प्रकार नाव के छिद्र वद रहने पर यात्री सकुशल अपने गतव्य स्थान तक पहुच जाते है, उसी प्रकार कर्मों के आने के द्वार को रोक देने पर जीव अपने मोक्ष रूपी लक्ष्य को प्राप्त कर लेते है, इस प्रकार सवर के गुणो का बार-बार चिन्तन करना सवरानुप्रेक्षा है। संवेग-दुखमय ससार के आवागमन से सदा डरते रहना सवेग कहलाता है । अथवा धर्म व धर्म के फल मे सदा उत्साह रखना सवेग है। अथवा पच-परमेष्ठी के प्रति प्रीति और धार्मिक जनो मे अनुराग रखना सवेग हे। 248 / जैनदर्शन पारिभाषिक कोश