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मनुष्यायु और दवायु-य चारा आयु-कर्म भवविपाकी है। भव्य-जिसकं सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट हान की योग्यता है वह भव्य है। भव्य जीव तीन प्रकार के हे-आसन्न भव्य, दूर भव्य ओर अभव्यसम भव्य । जो अल्पकाल मे मुक्त होंगे, वे आसन्न-भव्य है। जो बहुत काल में मुक्त होंगे, वे दूर-भव्य है । मुक्त होने की योग्यता होने पर भी जो कभी मुक्त नहीं होगे, वे दूरान्दूर-भव्य या अभव्यसम-भव्य है। भाव-1 जीव के परिणाम को भाव कहते है। ओपशमिक, क्षायिक, मिथ, ओदयिक ओर पारिणामिक-ये पाच भाव जीव के हैं। 2 जो
ओपशमिक आदि भावों के द्वारा जीवादि का विशेष ज्ञान किया जाता हे वह भाव-अनुयोग-द्वार है। भाव-कर्म-जीव के क्रोध आदि विकारी परिणाम भाव-कर्म कहलाते है। भाव-निक्षेप-वर्तमान पर्याय से युक्त द्रव्य को भाव-निक्षेप कहते हैं। द्रव्य का वर्तमान पर्याय की अपेक्षा व्यवहार करना भाव-निक्षेप है। जेसे-पूजा करते हुए को पुजारी कहना या सेवा करने वाले को सेवक कहना। भाव-परिवर्तन-योग-स्थान, अनुभाग-स्थान, कषाय-स्थान ओर स्थिति-स्थान इन चार के निमित्त से भाव-परिवर्तन होता है। प्रकृति
और पदेश-वध के कारणभूत आत्मा के प्रदेश परिस्पदन रूपयोगस्थान होते है। अनुभाग-वध मे कारणभूत कषाय की तरतमता (उतार चढाव) रूप अनुभाग-स्थान होते हे तथा स्थितिवध मे कारणभूत 184 / जनदर्शन पारिभाषिक कोश