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वन्ध-कर्म का आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाह होना वध कहलाता है। अथवा दूध व पानी की तरह कर्म और आत्मा का परस्पर सश्लेष सवध होना वध कहलाता है । वध दो प्रकार का हे-भाव-बध ओर द्रव्य-वध । जीव के क्रोधादि परिणाम ही भाव-वध है तथा जीव के साथ ज्ञानावरणीय आदि पुद्गल कर्म का सवध होना द्रव्य-बध है। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति ओर अनुभाग के भेद से वध चार प्रकार का
बन्धन-नामकर्म-शरीर की रचना के लिए प्राप्त हुए पुद्गलो का जिस कर्म के उदय से परस्पर सश्लेष होता है वह वन्धन-नामकर्म है। यदि वन्धन नामकर्म न हो तो शरीर लकडियो के ढेर के समान हो जावेगा। बकश-जो निग्रंथ हे और महाव्रतो का अखड पालन करते हे लेकिन शरीर व उपकरणो की शोभा बढाने में रुचि रखते हैं तथा ऋद्धि व यश प्राप्ति की कामना करते हे वे साधु बकुश कहलाते हे। वलभद्र-ये नारायण के सगे भाई होते है। हलायुध, वाण, गदा और माला-इन चार महारत्नो के साथ अपार वेभव के स्वामी होते है। एक उत्सर्पिणी या अवसर्पिणी काल मे कुल नो वलभद्र उत्पन्न होत है जो स्वर्ग या मोक्षगामी हे। वलिशेष-दोष-यक्ष, नाग आदि देवो के लिए चढाई गई वलि अर्थात् पूजन सामग्री मे से शेष बची हुई सामग्री साधु को आहार मे देना वलिशेष नामक दोष हे।
17h / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश