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________________ 2 जिसमे देश काल के अनुरूप सात प्रकार के प्रतिक्रमण का कथन किया गया है वह प्रतिक्रमण नाम का अङ्गबाह्य हे। प्रतिजीवी-गुण-द्रव्य में जो अभाव रूप गुण हे उन्हे प्रतिजीवी-गुण कहते है। जैसे नास्तित्व, अमूर्तत्व आदि । प्रतिनारायण-ये नारायण के शत्रु होते हे और युद्ध मे नारायण के हाथो मरण को प्राप्त कर नरक जाते है । एक अवसर्पिणी या उत्सर्पिणी काल मे कुल नो प्रतिनारायण होते है। अन्य शलाका पुरुषो की तरह इनका शरीर भी उत्तम सहनन व उत्तम सस्थान वाला होता है। प्रतिमा-1 नेष्ठिक श्रावक के व्रतादि गुणो मे उत्तरोत्तर विकास के ग्यारह स्थान कहे गये है। यही श्रावक की ग्यारह प्रतिमा कहलाती है। आगे की प्रतिमा के साथ पहले की प्रतिमा के व्रत नियम भी पालन करना अनिवाय होता है। 2 अर्हन्त आदि की वीतराग मूर्ति को प्रतिमा कहते है। यह पाषाण, काष्ठ, धातु, रत्न आदि से निर्मित हो सकती है। प्रतिष्ठा-मत्रोच्चारण आदि विधि-विधान पूर्वक रत्न, पाषाण आदि से निर्मित वीतराग प्रतिमा मे अर्हन्त आदि की स्थापना करना प्रतिष्ठा कहलाती है। प्रतिष्ठापन-समिति-जहा जीवो की विराधना न हो ऐसे निर्जन्तुक स्थान में मल मूत्र आदि का सावधानी से विसर्जन करना प्रतिष्ठापन या उत्सर्ग समिति है। यह साधु का एक मूलगुण है। प्रतीत्य-सत्य-अन्य वस्तु की अपेक्षा से जो कहा जाए वह प्रतीत्य-सत्य है। जैसे-'यह दीर्घ हे' या 'वह ह्रस्व है।' जेनदर्शन पारिभाषिक कोश / 163
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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