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________________ जिन कहनात है। जिन दो प्रकार के है-सकल जिन और देश-जिन । आचाय, उपाध्याय और माधु श-जिन ह तथा अर्हन्त और सिद्ध भगवान सकन्न-जिन है । जिनकल्पी- जिन्होंन राग, द्वेप और माह की जीत लिया है जो उपसर्ग व परीप की ममतापूवक महन करते है और जो जिनेन्द्र भगवान के समान विहार आदि चया करते है ऐम उत्तम सहनन और सामायिक चारित्र के धारी महामुनि जिनकल्पी कहलाते है । जिनविव- जिनन्द्र भगवान की निरावरित, निर्विकार/ वीतराग प्रतिमा की जिनविव कहत है। जिनलिग - जिनेन्द्र भगवान के समान अतरग में वीतरागता ओर वाह्य म परिग्रह से रहित निर्विकार यथाजात वालकवत् रूप धारण करना जिनलिग या जिनमुद्रा कहलाती है। जिनवाणी - सब जीवा के हित का उपदेश देने वाली श्री अर्हन्त भगवान की वाणी ही जिनवाणी कहलाती है । तत्त्व का स्वरूप बताने वाली यह जिनवाणी द्वादशाग रूप हाती हे। जिनालय - देखिए - चेत्यालय | जीव-जो जानता- देखता है उसे जीव कहते हे । या जिसमें चेतना हे वह जीव हे। जीव दो प्रकार के हे- ससारी जीव ओर मुक्त जीव । जो जीव ससार मे निरतर जन्म-मरण का दुख भोग रहे है वे ससारी जीव है। जो जीव अपने आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर ससार से पार हो जाते हे वे मुक्त - जीव कहलाते है । जीवविपाकी - जिन कर्मो का विपाक अर्थात् फल मुख्यत जीव में होता 102 / जेनदर्शन पारिभाषिक कोश
SR No.010043
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKshamasagar
PublisherKshamasagar
Publication Year
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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