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(च) संकीर्ण भैरवी ( तात) हा (बाघ) सोरठिया या बोली जी सर दे डाल मीर ।
कब आवेगी ना जाने म्हारी अधी काल ( टेक )
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मैं निनोद चलकर भाषा नस बाबर में भरवाया । भवदवि में गोता खाया भी हो करके बेहाल ॥ १ ॥ कहीं नर्क पशु गति पाई कहीं लई स्वर्ग गति नाई । पर समकित कहीं नहीं आई जी कर्मन के मंगात ॥२॥ जब भटक भटक में हारो. नव दुर्लभ नर भद बारो । यहां भी नहीं कारण सारो जी मैं फंसा मोह के बाल ॥३॥ भव भव में जो दुख पायो, नहीं सुख में जाय सुनायो । अब शिव मारन दर्शादो जी, तुम दीन दया ॥४॥ तुब सुखकारी हितकारी, सप बीएन सुख परिहारी । अब लीनी शरण तिहारी की, व्यामत को दुरु मल ॥५॥
(राग) नाटक छाया लगत भैग्दी ( तास कहरी ) भगवत की बानी पे श्रद्धान बायो तिहुं जग का भान है, सच्चा मुहान है । केवल प्रमान है, सब से महान है || भगवत की ० ॥ टेक ॥