________________
दश-वैकालिक-सूत्र।
प्रथम चूलिका। हे शिष्य ! सकल प्राणी थाकि ए संसारे । दुःखमय समयेते दुःख भोग करे। गृहस्थ आश्रमे वास यदि दु.खतरे। तथाय थाकिते इच्छा केन नर करे ? ॥१ गृहस्थर काम भोग अति तुच्छ हय । अल्पकाल स्थायी उहा अति दुःखमय ॥२ नरगण मायावद्ध हय चिर दिन । अविश्वस्त हये हय सन्तोप विहीन । भोगेर वासना द्वारा सर्वदा विह्वल । एहेन गृहस्थाश्रमे थाकि किवा फल ॥३ संयमेते उद्धगेर हइले सञ्चार । चिन्ति यतने साधु निम्नोक्त प्रकार ।। शारीरिक मानसिक दुःख चिरकाल । थाकिवेना कर्मवन्ध परम जञ्जाल ।। गृहाश्रमे लालसाय किवा हवे फल । संयमेते हड़ थाकि हइवे सफल ॥४ अर्चना सत्कार करे संयमी साधुके । वड़ वड़ महाराज थाकि इह लोके ॥ दीक्षात्यागी साधुजन का- सिद्धितरे । साधारण लोकगणे खोशामोद करे ।। एहेन दुर्दशा हेरि कोन साधु जन । याइते इच्छुक हन गृहस्थ भवन ? ॥५